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उत्पन्न होती है। दूसरे साधर्मिकों को सुख-शान्ति प्राप्त हो, इस प्रकार का व्यवहार व चेष्टाएँ करना लोकोपचार विनय के अन्तर्गत आता है।
वैयावृत्य
वैयावृत्य जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जो कि सेवा-शुश्रूषा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। आचार्य (गुरु), तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित आदि को विधिपूर्वक आहारादि लाकर देना, परिचर्या करना, सेवा करना आदि वैयावृत्य है । वैयावृत्य के महत्त्व को बताते हुए उत्तराध्ययन में कहा गया है कि वैयावृत्य से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन होता है- वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोयं कम्मं निबंधेइ (29.44)। स्थानांगसूत्र 2 में वैयावृत्य का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि रोगी, नवदीक्षित, आचार्य आदि की सेवा करता हुआ साधक महान निर्जरा और महान पर्यवसान प्राप्त करता है। स्थानांगसूत्र” में भगवान् महावीर ने आठ शिक्षाएँ प्रदान की हैं, उनमें से दो शिक्षाएँ वैयावृत्य को ही पुष्ट करती हैं । जो अनाश्रित, असहाय तथा अनाधार हैं, उनको सहायता - सहयोग एवं आश्रय देने को सदा तत्पर रहना चाहिये। दूसरी शिक्षा है कि रोगी की सेवा करने के लिए अग्लान भाव से सदा तत्पर रहना चाहिये। सेवा करने वाले को सदा विवेकपूर्व ढंग से सेवा करनी चाहिये अर्थात् अवसर के अनुसार सेवा करना ही सच्चे वैयावृत्य का पालन करना है। वैयावृत्य के दस भेद बताये गये हैं
1. आचार्यवैयावृत्य, 2. उपाध्यायवैयावृत्य, 4. तपस्वीवैयावृत्य, 5. ग्लानवैयावृत्य, 7. कुलवैयावृत्य, 8. गणवैयावृत्य, 10. साधर्मिकवैयावृत्य
स्वाध्याय
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3. स्थविरवैयावृत्य, 6. शैक्षवैयावृत्य, 9. संघवैयावृत्य,
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शास्त्रों का मर्यादापूर्वक और विधि सहित अध्ययन करना स्वाध्याय हैसुष्ठु-आ मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः - ( स्थानांगटीका 5.3.465) स्वाध्याय वाणी का तप है, स्वाध्याय से नया विचार व नया चिन्तन उत्पन्न होता है स्थानांग 54 में इसके महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि स्वाध्याय से श्रुत का संग्रह होता है। श्रुतज्ञान से उपकृत शिष्य प्रेम से श्रुत की सेवा करता है। इससे उसके ज्ञान के प्रतिबंधक कर्म निर्जरित होते हैं तथा निरन्तर स्वाध्याय से सूत्र विच्छिन्न नहीं होते हैं। उत्तराध्ययन" में कहा है कि स्वाध्याय समस्त दुःखों से मुक्ति दिलाता है। जैन साहित्य ही नहीं वैदिक साहित्य में भी स्वाध्याय के महत्त्व
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन