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विनय तप
दशवैकालिक में विनय को धर्म का मूल माना है। विनय का अर्थ केवल नम्रता ही नहीं अनुशासन भी है। गुरुजन की इच्छा, आज्ञा आदि को ध्यान में रखकर आचरण करना ही अनुशासन विनय है। उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन में विनय पर विस्तार से चर्चा मिलती है। आगम साहित्य में विनय शब्द तीन अर्थ में प्रयुक्त हुआ है; 1. अनुशासन, आत्मसंयम तथा नम्रता। भगवतीसूत्र में विनय के सात प्रकार बताये गये हैं
1. ज्ञान विनय, 2. दर्शन विनय, 3. चारित्र विनय, 4. मन विनय, 5. वचन विनय, 6. काय विनय, 7. लोकोपचार विनय
ज्ञान विनय- ज्ञान व ज्ञानी के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखना उनके प्रति बहुमान दिखाना, उनके द्वारा प्ररूपित तत्त्वों पर सम्यक् चिन्तन-मनन करना आदि प्रक्रिया ज्ञान-विनय है। ज्ञान विनय के पाँच प्रकार हैं;
1. मतिज्ञान-विनय, 2. श्रुतज्ञान-विनय, 3. अवधिज्ञान-विनय, 4. मन:पर्यवज्ञान-विनय, 5. केवलज्ञान-विनय।
दर्शन विनय- देव-गुरु व धर्म इन तीनों पर श्रद्धा रखना, इनकी अवहेलना ना करना दर्शन विनय है। दर्शन विनय के दो भेद हैं; 1. शुश्रूषा विनय, 2. अनाशातना विनय।
चारित्र विनय- चारित्र व चारित्रवानों का विनय करना चारित्र विनय है। यह पाँच प्रकार का है;
1. सामायिकचारित्रविनय, 2. छेदोपस्थापनीयचारित्रविनय, 3. परिहारविशुद्धचारित्रविनय, 4. सूक्ष्मसंपरायचारित्रविनय, 5. यथाख्यातचारित्रविनय।
मनोविनय- मन को अप्रशस्त कार्यों से हटाकर पवित्र कार्यों में लगाना मनोविनय है। इसके दो मुख्य भेद हैं। 1. प्रशस्त मनोविनय, 2. अप्रशस्त मनोविनय
वचन विनय- अप्रशस्त शब्दों का त्याग कर प्रशस्त वाणी का प्रयोग करना वचन विनय है। वचन विनय के दो मुख्य भेद हैं;
1. प्रशस्तवचनविनय, 2. अप्रशस्तवचनविनय।
काय विनय- काय संबंधी जिनती भी प्रवृत्तियाँ हैं, यथा- चलना, उठना, बैठना आदि उन्हें उपयोगपूर्वक करना काय विनय है।
लोकोपचार विनय- इस विनय से लोक-व्यवहार की कुशलता सहज
श्रमणाचार
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