SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करके बुलाता है। वस्तुतः आध्यात्मिक तप, जप, संयम आदि की साधना एवं पालन के लिए शरीर को शास्त्र-सम्मत तरीके से समभावपूर्वक क्लेश पहुँचाना कायक्लेश तप है। वीरासन, उत्कुटुकासन, दण्डासन आदि आसनों का सेवन, केशलुंचन, जंगल में कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा होना, ध्यान लगाना आदि कायक्लेश तप हैं। ग्रंथ में इसके अनेक भेद बताये गये हैं यथा- स्थान-स्थितिक, स्थानातिग उत्कुटुकासनिक आदि। प्रतिसंलीनता __ प्रतिसंलीनता से तात्पर्य है, लीन होना। आत्मा को 'पर' से हटाकर 'स्व' पर केन्द्रित करना, उसे अर्तमुखी बनाना ही प्रतिसंलीनता है। इस तप में इन्द्रियों, कषायों तथा मन, वचन, काया के योगों को बाहर से हटाकर भीतर की ओर केन्द्रित किया जाता है तथा एकान्त स्थान में निवास किया जाता है। इसके चार भेद हैं। 1. इन्द्रियप्रतिसंलीनता 2. कषायप्रतिसंलीनता 3. योगप्रतिसंलीनता 4. विविक्तशय्यासन- प्रतिसंलीनता। इनके प्रभेदों का भी ग्रंथ में उल्लेख किया गया है। आभ्यान्तर तप- जिस तप का सीधा संबंध आत्मा के आन्तरिक परिणामों से होता है, उसे आभ्यान्तर तप कहते हैं। आभ्यान्तर तप में अन्तकरण के व्यापार की प्रधानता होती है। आभ्यान्तर तप के बिना बाह्य तप अपूर्ण है। भगवतीसूत्र में तामली तापस व पूरण तापस की उग्र तपस्या का वर्णन है, किन्तु आभ्यान्तर तप के अभाव में उनका उग्र तप अज्ञान तप ही था। तप का प्रारंभ बाह्यतप से होता है, किन्तु उसकी पूर्णता आभ्यान्तर तप के बिना संभव नहीं होती है। बाह्यतप से जब साधक का तन उत्तप्त हो जाता है, तब मन की मलीनता को नष्ट करने के लिए वह आभ्यान्तर तप की ओर उन्मुख होता है। आभ्यान्तर तप मोक्ष प्राप्ति का अन्तरंग कारण है। मुमुक्षुसाधक इसे अपनाकर अन्तरंग राग-द्वेष आदि का क्षय करते हैं। इस तप का प्रभाव बाह्य शरीर पर नहीं पड़ता है। आभ्यान्तर तप छः प्रकार बताया गया है; 1. प्रायश्चित, 2. विनय, 3. वैयावृत्य 4. स्वाध्याय, 5. ध्यान, 6. व्युत्सर्ग प्रायश्चित जो पाप का छेदन करता है, वह प्रायश्चित है। प्रायश्चित के आलोचनार्ह आदि दस भेद बताये गये हैं। इसका वर्णन पीछे किया जा चुका है। 246 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy