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________________ करता है कि एक आप खाना तथा शेष अन्य स्थविरों को देना। तब उस श्रमण को उन अन्य स्थविरों की गवेषणा करनी चाहिये तथा जहाँ भी वे स्थविर मिले उन्हें वे पिण्ड दे देने चाहिये। यदि वे स्थविर न मिले तो उसे न तो वे पिण्ड स्वयं खाने चाहिये न ही अन्य किसी श्रमण को देने चाहिये, किन्तु एकांत अनापात, अचित्त भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जनकर उन पिण्डों को वहाँ परठ देना चाहिये। आधाकर्म दोषयुक्त एवं प्रासुकएषणीयादि आहार सेवन का फल भगवतीसूत्र में कहा गया है- 'आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि का सेवन करने वाला श्रमण निग्रंथ आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों को दृढ़ बंधन में बांधता है तथा अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता हआ जीवों की परवाह न करता हुआ उनका उपभोग करता है और इस अनंत संसार में बार-बार भटकता है। प्रासुक व एषणीय आहारादि का उपयोग करने वाला श्रमण आयुकर्म को छोड़कर सात कर्म प्रकृतियों के बंधन को ढीला करता है। वह संवृत अनगार के समान होता है। वह आत्मधर्म का उल्लंघन नहीं करता है। वह पृथ्वीकायादि सभी जीवों के जीवन को चाहता है अत: इस अनंत संसार को पार कर जाता है।' आधाकर्मादि दोषों से युक्त आहार का किसी भी रूप में मन-वचन-काय से सेवन करने वाला साधु यदि अन्तिम समय में उस दोष स्थान की आलोचना प्रतिक्रमणाादि किये बिना ही काल कर जाता है तो वह विराधक होता है, किन्तु यदि इन दोषों में से सेवित किसी भी दोष का अन्तिम समय में आलोचनाप्रतिक्रमण आदि कर लेता है, तो वह आराधक होता है। रस परित्याग रस परित्याग का अर्थ है, अस्वादव्रत। दूध, दही, घी, तेल तथा मिष्ठान आदि विकृतिजनक पदार्थों का त्याग करके भोजन करना, रस परित्याग है। वैसे तो साधु के लिए नीरस आहार का ही विधान है पर सरस आहार मिल जाये तो वह उसे ग्रहण कर सकता है। परन्तु रस-परित्याग तप को ग्रहण करने वाला दूध, दही घी आदि से युक्त सरस भोजन का अंगीकार नहीं कर सकता है। रस परित्यागतप से जमालि को भयंकर रोग उत्पन्न हो गया था। ग्रंथ में कहा गया है कि अत्यंत आसक्त होकर प्रीतिपूर्वक आहार करने वाले साधु को अंगार दोष लगता है। रस-परित्याग के निर्विकृतिक, प्रणीतरस-विवर्जक, रूक्षाहार आदि अनेक भेद किये गये हैं। कायक्लेश __ कायक्लेश का शाब्दिक अर्थ है, काया को कष्ट देना। इससे शरीर में निश्चलता एवं अप्रमत्तता आती है। कायक्लेश तप में साधक कष्टों को आमंत्रित श्रमणाचार 245
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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