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________________ नहीं करना धूम दोष रहित आहार होता है तथा जैसा मिला है वैसा ही आहार बिना संयोग किये करना संयोजना दोष से रहित आहार होता है । क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त व प्रमाणातिक्रान्त आहार निर्ग्रथ या निर्ग्रथी द्वारा 1. सूर्योदय से पूर्व ग्रहण करके सूर्योदय के पश्चात् किया गया आहार क्षेत्रातिक्रान्त पान - भोजन होता है, 2. प्रथम प्रहर (पौरूषी) में ग्रहण कर अन्तिम प्रहर (पौरूषी) तक रखकर सेवन किया जाने वाला कालातिक्रान्त पान - भोजन कहलाता है, 3. आधे योजन की मर्यादा का उल्लंघन करके किया जाने वाला आहार मार्गातिक्रान्त पान - भोजन कहलाता है, 4. कुक्कुटीअण्डक प्रमाण बत्तीस कवल की मात्रा से अधिक आहार प्रमाणातिक्रान्त आहार कहलाता है । शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित, एषित, व्येषित सामुदायिक भिक्षारूप आहार जो आहार जन्तुओं से रहित, जीवच्युत और जीवविमुक्त (प्रासुक) हो, जो साधु के लिए नहीं बनाया गया, न बनवाया गया, जो असंकल्पित (आधाकर्मादि दोष रहित), अनाहूत (आमंत्रणरहित), अक्रीतकृत (नहीं खरीद हुआ), अनुद्दिष्ट (औद्देशिक दोष से रहित), नवकोटिविशुद्ध है, (शंकित आदि) इन दस दोषों से विमुक्त है, उद्गम (16 उद्गम दोष) और उत्पादना (16 उत्पादना) संबंधी एषणा दोषों से रहित सुपरिशुद्ध है, अंगार, धूम, संयोजनादोष रहित है तथा जो सुरसुर और चपचप शब्द से रहित, बहुत शीघ्रता और अत्यन्त विलम्ब से रहित, आहार का लेशमात्र भी छोड़े बिना, नीचे न गिराते हुए, गाड़ी की धुरी के अंजन अथवा घाव पर लगाए जाने वाले लेप (मल्हम) की तरह केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए और संयम - भार को वहन करने के लिए, जिस प्रकार सर्प बिल में (सीधा ) प्रवेश करता है, उसी प्रकार जो आहार करते हैं, वह शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित, एषित, व्यषित सामुदायिक भिक्षारूप पान - भोजन है । पिण्ड पात्रादि का उपभोग भगवती सूत्र में कहा गया है- गृहस्थ द्वारा दिये गये आहाररूप पिण्ड, पात्र, गुच्छक, रजोहरण आदि जितनी संख्या में जिसको उपभोग करने के लिए दिये हैं, उसे ग्रहण करने वाले साधु को चाहिये कि वह उसी प्रकार स्थविरों को वितरित करे। यदि ढूंढने पर भी वे स्थविर नहीं मिले तो उस वस्तु का न तो स्वयं उपयोग करे और न ही वह वस्तु दूसरे साधु को दे, अपितु विधिपूर्वक उसे परठ देनी चाहिये। इसे उदाहरण द्वारा समझाते हुए कहा गया है कि यदि कोई गृहस्थ निर्ग्रथ को दो या अधिक पिण्ड (खाने की वस्तु) बहराता है और यह उपनिमंत्रण भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन 244
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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