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भगवान् महावीर के धर्मोपदेशों को स्वीकार कर उसी के अनुसार आचरण करने लगे। वे ईर्यासमिति आदि आठ समितियों का सम्यक् रूप से पालन करने लगे तथा मन, वचन, काय- इन तीन गुप्तियों से गुप्त रहने लगे। ब्रह्मचारी, त्यागी, संयमी, पुण्यवान, क्षमावान, जितेन्द्रियव्रतों आदि के शोधक, निदानरहित, आकांक्षारहित, उतावल से दूर, संयमीचित्त वाले, श्रेष्ठ साधुव्रतों में लीन, दान्त स्कन्दक मुनि इस निग्रंथ आचरण को सम्मुख रखकर विचरण करने लगे।
स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करने के पश्चात् उनका कठोर तपस्वी जीवन इस प्रकार प्रारंभ हुआ- 'भगवान् महावीर की आज्ञा लेकर उन्होंने बारह भिक्षुप्रतिमाओं को क्रम से अंगीकार किया। अन्तिम ‘एकरात्रिकी' भिक्षुप्रतिमा का पालन करने के पश्चात् उन्होंने 'गुणरत्नसंवत्सर' नामक तपश्चरण को अंगीकार किया तथा कल्पानुसार उसकी पूरी आराधना की। इसके पश्चात् अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पचौला, मासखमण, अर्द्धमासखमण इत्यादि विविध प्रकार के तपों से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। इस प्रकार के उग्र तपश्चरण से उनका शरीर अत्यंत कृश हो गया लेकिन वे तप के तेज से पुष्ट थे। एक रात्रि में स्कन्दक मुनि को संलेखनापूर्वक संथारा ग्रहण करने की भावना हुई। अगले दिन भगवान् महावीर की आज्ञा से संलेखना संथारा करके, भक्त-पान
का सर्वथा त्याग करके पादपोपगमन अनशन करके, मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए, एक मास की संलेखना से अपनी आत्मा को संलिखित करके, साठ भक्त का त्यागरूप अनशन करके, आलोचना और प्रतिक्रमण कर, समाधि प्राप्त कर कालधर्म को प्राप्त हुए।'
___ कालास्यवेषि पुत्र अनगार के प्रसंग में श्रमण की चर्या को इस प्रकार स्पष्ट किया है। 'कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन किया। ननभाव, मुण्डभाव, अस्नान, अदन्तधावन, छत्रवर्जन, पैरों मे जूते न पहनना, भूमिशयन, फलक पर शय्या, काष्ठ पर शयन, केशलोचन, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षार्थ गृहस्थों के घरों में प्रवेश, लाभ-अलाभ सहना, अनुकूल-प्रतिकूल इन्द्रिय समूह के लिए कण्टकसम चुभने वाले शब्दादि 22 परीषहों को सहन करना आदि इन सब साधनाओं को स्वीकार किया।4 संदर्भ 1. शास्त्री, देवेन्द्रमुनि- जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. 3-6 2. आचारांगनियुक्ति, गा. 16
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन