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दीक्षा की वय (आयु)
__कुछ जैनागमों में बाल, वृद्ध दीक्षा का निषेध मिलता है। निशीथभाष्य22 में बाल-प्रव्रज्या देने में अनेक दोष बताये गये हैं। भगवतीसूत्र में वय की दृष्टि से दीक्षा ग्रहण करने के किसी नियम का उल्लेख नहीं हुआ है। जिस किसी के मन में वैराग्य का समुद्र लहराया वह दीक्षा ग्रहण कर संयमी जीवन की ओर बढ़ गया। श्रमण अनगारधर्म के लिए योग्यता का विवेचन करते हुए भगवतीसूत्र23 में कहा है- क्लीबों (नामर्दो), कायरों, कापुरुषों तथा इस लोक में आसक्त और परलोक से पराड्.मुख एवं विषयभोगों की तृष्णा वाले पुरुषों के लिए, प्राकृतजन (साधारण व्यक्ति) के लिए इस निग्रंथप्रवचन (धर्म) का आचरण करना दुष्कर है; परन्तु धीर (साहसिक), कृतनिश्चय एवं उपाय में प्रवृत्त पुरुषों के लिए इसका आचरण करना कुछ भी दुष्कर नहीं है ।ग्रंथ में बाल, युवा व वृद्ध तीनों ही वय के व्यक्तियों द्वारा दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है।
भगवतीसूत्र के पांचवे शतक में अतिमुक्तकुमार24 श्रमण का संक्षिप्त कथानक वर्णित हुआ है, जिसमें कुमार श्रमण बालचेष्ठा के कारण वर्षा ऋतु में अपने पात्रों को नौका की तरह बहाकर क्रीड़ा कर रहे थे। अल्पवय में दीक्षित होने के कारण ही अतिमुक्त के लिए 'कुमार श्रमण' शब्द का प्रयोग हुआ है। आचार्य अभयदेवसूरि ने भगवती टीका25 में स्पष्ट किया है कि अतिमुक्तकुमार ने छः वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की थी जबकि दीक्षा के लिए न्यूनतम आयु आठ वर्ष मानी गई है। अत: अतिमुक्तकुमार का श्रमण दीक्षा ग्रहण करना तथा भगवान् महावीर द्वारा इसी भव में उनके सिद्ध-बुद्ध होने की घोषणा करना यह स्पष्ट करता है कि वैराग्य की तीव्रता होने पर आयु उसमें बाधक नहीं होती है। ग्रंथ में युवादीक्षा के भी उदाहरण मिलते हैं। क्षत्रियकुमार जमालि व राजकुमार महाबल द्वारा युवावस्था के प्रारंभ में ही श्रमणदीक्षा को अंगीकार किया गया। ऋषभदत्त ब्राह्मण व देवानन्दा ब्राह्मणी को श्रमण भगवान् महावीर द्वारा स्वयं प्रवजित किया जाना वृद्ध दीक्षा के उदाहरण हैं।28 दीक्षा ग्रहण के पश्चात् संयम, तप व अन्त में संलेखनापूर्वक संथारा कर दोनों सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं।
ग्रंथ में आये ये सभी उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि श्रमण दीक्षा का संबंध वय की अपेक्षा वैराग्य की तीव्रता से है। वैराग्य की तीव्र भावना होने पर किसी भी आयु का व्यक्ति दीक्षा अंगीकार कर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता
है।
श्रमणदीक्षा एवं चर्या
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