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________________ एवं उपद्रवों से ग्रस्त है। अध्रुव (चंचल) है, अनियत है, अशाश्वत है, संध्याकालीन बादलों के रंग-सादृश्य क्षणिक है, जल-बुलबुलों के समान है, कुश की नोक पर रहे हुए जल बिन्दु के समान है, स्वप्रदर्शन के तुल्य है, विद्युत-लता की चमक के समान चंचल और अनित्य है। सड़ने, पड़ने, गलने और विध्वंस होने के स्वभाव वाला है। पहले या पीछे इसे अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा। अतः हे माता-पिता ! मैं चाहता हूँ कि आपकी अनुज्ञा मिल जाए तो मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंडित होकर प्रव्रज्या अंगीकार कर लूँ।' माता-पिता द्वारा विरोध करने पर पुनः जीवन की अनित्यता को बताते हुए कहते हैं- 'यह मानव-शरीर दुःखों का घर है, अनेक प्रकार की सैंकड़ों व्याधियों का निकेतन है, अस्थि-(हड्डी) रूप काष्ठ पर खड़ा हुआ है, नाड़ियों और स्नायुओं के जाल से वेष्टित है, मिट्टी के बर्तन के समान दुर्बल (नाजुक) है। अशुचि (गंदगी) से दूषित है, इसको टिकाये (संस्थापित) रखने के लिए सदैव इसकी सम्भाल (व्यवस्था) रखनी पड़ती है। यह सड़े हुए शव के समान और जीर्ण घर के समान है। सड़ना, गलना और नष्ट होना, इसका स्वभाव है। इस शरीर को पहले या पीछे अवश्य छोड़ना पड़ेगा; तब कौन जानता है कि पहले कौन जाएगा और पीछे कौन? इसलिए मैं चाहता हूँ कि आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं प्रव्रज्या ग्रहण कर लूँ।' भगवतीसूत्र में जहाँ जमालि कुमार द्वारा संसार की अनित्यता के कारण वैराग्य धारण करने का विवरण प्राप्त होता है, वहीं स्कन्दक परिव्राजक द्वारा संसार की नश्वरता के साथ-साथ आत्मा के कल्याण के लिए वैराग्य को धारण किया गया। स्कन्दक परिव्राजक भगवान् महावीर से निर्गंथ धर्म में प्रवर्जित होने की प्रार्थना करते हुए कहते हैं- 'वृद्धावस्था व मृत्युरूपी अग्नि से यह लोक जल रहा है। यदि किसी गृहस्थ के घर आग लग जाय तो वह बहुमूल्य व अल्पभार वाले सामान को पहले बाहर निकालता है और एकांत में ले जाकर सोचता है कि यह बचा सामान मेरे लिए हितकर एवं काम आने वाला होगा। इसी प्रकार मेरी आत्मा मेरे लिए बहुमूल्य भांड के समान है, यह मुझे इष्ट, कांत व प्रिय है, यह आत्मा मेरे लिए रत्न के समान है। इसलिए इसे ठंड, गर्मी न लगे, भूख-प्यास से यह पीडित न हो, इसे चोर, सर्प, डाँस, मच्छर आदि हानि न पहँचाए, रोग परीषह-उपसर्ग, आतंक आदि इसे स्पर्श न करे। उपर्युक्त विघ्नों से रहित मेरी यह आत्मा मेरे लिए परलोक में हितकर, सुखरूप, कुशलरूप, कल्याणरूप व अनुगामीरूप होगा। इसलिए मैं प्रवजित होना चाहता हूँ। 222 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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