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________________ परिपूर्ण, न्याययुक्त, संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्याणमार्ग और निर्वाणमार्गरूप है। यह अवितथ (असत्यरहित, असंदिग्ध) सर्वदुःखों का अन्त करने वाला है। इसमें तत्पर जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं एवं समस्त दु:खों का अन्त करते हैं। परन्तु यह निग्रंथधर्म सर्प की तरह एकान्त (चारित्र पालन के प्रति निश्चय) दृष्टि वाला है, छुरे या खड्ग आदि तीक्ष्ण शस्त्र की तरह एकान्त (तीक्ष्ण) धार वाला है। यह लोहे के चने चबाने के समान दुष्कर है; बालू (रेत) के कौर (ग्रास) की तरह स्वादरहित (नीरस) है। गंगा आदि महानदी के प्रतिस्रोत में गमन के समान अथवा भुजाओं से महासमुद्र तैरने के समान पालन करने में अतीव कठिन है। निग्रंथ धर्म पालन करना तीक्ष्ण तलवार की तीखी धार पर चलना है; महाशिला को उठाने के समान गुरुतर भार उठाना है। तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान इसका व्रताचरण करना (दुष्कर) है। श्रमण दीक्षा श्रमण दीक्षा अनगारधर्म का प्रवेशद्वार है। यह एक अर्तमुखी साधना है और इस साधना के पथ पर वही व्यक्ति चल सकता है जिसके अर्न्तमन में वैराग्य का सागर लहरा रहा हो, जो सांसारिक विलासों का त्याग कर आध्यात्मिक सुखों को अपनाना चाहता है। भगवती सूत्र में कई व्यक्तियों द्वारा श्रमण दीक्षा अंगीकार करने का वर्णन हुआ है। यथा- स्कन्दक परिव्राजक, जमालि, ऋषभदत्त ब्राह्मण, देवानन्दा ब्राह्मणी, मुनि अतिमुक्तकुमार, जयन्ती श्राविका आदि के दीक्षा प्रसंग से आहती दीक्षा के निम्न पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है। वैराग्य के कारण जैनागमों में वैराग्य धारण के कई कारण मिलते हैं। उत्तराध्ययन18 में अरिष्टनेमि पशुओं की चित्कार से उपजी करुणा के कारण दीक्षा ग्रहण करते हैं तो राजीमती पति के मार्ग का अनुसरण करती हुई वैराग्य पथ को अंगीकार करती है। स्थानांगसूत्र'' में प्रव्रज्या के 10 कारण (प्रकार) बताये हैं। भगवतीसूत्र में संसार की नश्वरता व अनित्यता के साथ-साथ आत्मकल्याण की भावना को वैराग्य के प्रमुख कारण के रूप में विवेचित किया गया है। ग्रंथ20 में संसार की नश्वरता व जीवन की अनित्यता से उद्विग्न जमालि कुमार माता-पिता से दीक्षा की अनुमति माँगते हुए कहते हैं- 'यह मनुष्य जन्म, जरा, मृत्यु, रोग तथा शारीरिक और मानसिक अनेक दुःखों की वेदना से और सैंकड़ों व्यसनों (कष्टों) श्रमणदीक्षा एवं चर्या 221
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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