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वह कुछ भी दान नहीं देता हो । भगवतीसूत्र' में निर्ग्रथ प्रवचन के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए तुंगिका के श्रमणोपासक कहते हैं कि यह निग्रंथ प्रवचन ही सार्थक है, परमार्थ है, शेष सभी निरर्थक है ।
निर्ग्रथ श्रमणों के सुखों के महत्त्व पर भगवतीसूत्र में विशेष प्रकाश डाला गया है। श्रमण सांसारिक सुखों से निर्लिप्त रहते हुए संसार में रहता है अत: उसके सुखों को अलौकिक देवों के सुखों से श्रेष्ठतर बताते हुए कहा है- 'एक मास की दीक्षापर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ वाणव्यन्तर देवों की तेजोलेश्या (सुखासिका) का अतिक्रमण करता है अर्थात् वह वाणव्यन्तर देवों से भी अधिक सुखी होता है। दो मास की दीक्षा - पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ असुरेन्द्र ( चरमेन्द्र और बलीन्द्र) के सिवाय (समस्त) भवनवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है । इसी प्रकार तीन मास की दीक्षा - पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ, (असुरेन्द्र सहित) असुरकुमार देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है । चार मास की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ ग्रहगण-नक्षत्र - तारारूप ज्योतिष्क देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। पांच मास की दीक्षा - पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ ज्योतिष्कराज चन्द्र और सूर्य की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। छह मास की दीक्षा - पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ सौधर्म और ईशानकल्पवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। सात मास की दीक्षा - पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ सनत्कुमार और माहेन्द्र देवों की तेजोलेश्या का; आठ मास की दीक्षा - पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ ब्रह्मलोक और लान्तक देवों की तेजोलेश्या का; नौ मास की दीक्षा - पर्याय वाला श्रमणनिर्गंथ महाशुक्र और सहस्रार देवों की तेजोलेश्या का; दस मास की दीक्षा - पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ आनत, प्राणत, आरण और अच्युत देवों की तेजोलेश्या का; ग्यारह मास की दीक्षा - पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ ग्रैवेयक देवों की तेजोलेश्या का और बारह मास की दीक्षा - पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रथ अनुत्तरौपपातिक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है । इसके बाद शुक्ल (शुद्धचारित्री) एवं परम शुक्ल (निरतिचार- विशुद्धतरचारित्री) होकर फिर वह सिद्ध होता है, दुःखों का अन्त करता है । 16
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क्षत्रियकुमार जमालि के दीक्षा प्रसंग 17 में श्रमणधर्म की महत्ता को बताते हुए उसे इष्ट, अभिष्ट व रुचिकर कहा है तथा निर्ग्रथ प्रवचन को तथ्यरूप सत्य व असंदिग्ध माना है। जमालि के प्रसंग में श्रमण प्रवचन का अद्वितीय स्वरूप बताते हुए जमालि के माता -1 ता-पिता कहते हैं; 'यह निर्ग्रथप्रवचन सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय,
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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