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________________ श्रमण है । भगवतीसूत्र' में 'समन' के इस रूप पर भी विशेष प्रकाश डाला है। ग्रंथ में श्रमण निर्ग्रथ धर्म को अनासक्त व कषायमुक्त धर्म कहा है । अल्पइच्छा, अमूर्च्छा, अनासक्ति, अप्रतिबद्धता को श्रमणों के लिए प्रशस्त बताया है तथा क्रोध, मान, माया व लोभ इन चारों कषायों की रहितता को श्रमण के लिए श्रेष्ठ कहा है । कांक्षाप्रदोष को संसार का प्रमुख कारण मानते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है कि कांक्षाप्रदोष क्षीण हो जाने पर श्रमण मुक्ति को प्राप्त करता है । श्रमण के तृतीय रूपान्तर 'शमन' का अर्थ है- शांत करना । इस दृष्टि से जिसने चित्तवृत्तियों को शांत कर लिया है अथवा वासनाओं का दमन कर लिया है, वही श्रमण है। इसी संदर्भ में संवृत, असंवृत अनगार के स्वरूप को बताते हुए भगवतीसूत्र " में कहा गया है कि आस्रव द्वारों का निरोध करके संवर की आराधना में लगा श्रमण संवृत होता है तथा हिंसादि आस्रव द्वारों को नहीं रोकने वाला अनगार असंवृत कहलाता है । स्पष्ट है कि भगवतीसूत्र के मूल में श्रमण के स्वरूप को बताने वाले श्रम, सम व शम ये तीनों ही तत्त्व मौजूद हैं। श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतरागी, अनगार, भदन्त, दांत और यति ये दस नाम श्रमण के ही पर्यायवाची हैं।" जैन आगमों में श्रमण के लिए प्रायः निर्ग्रथ शब्द का प्रयोग भी मिलता है अर्थात् जो परिग्रह अथवा राग द्वेष की ग्रन्थि से रहित हैं । 12 श्रमण का महत्त्व I आदिकाल से ही श्रमण संस्कृति में श्रमण का महत्त्व अत्यधिक रहा है श्रमण का जीवन इस प्रकार का होता है कि वह संसार में रहते हुए भी राग-द्वेष आदि कषायों से विमुक्त होकर जीता है । साधना के मार्ग पर बढ़ता हुआ वह अपनी आत्मा के उत्थान का मार्ग प्रशस्त करता है। जैन आगम साहित्य में श्रमण की गरिमा का यत्र-तत्र उल्लेख मिलता है । आचारांग 13 में कहा गया है अमुनि (अज्ञानी) सदा सोये हुए हैं, मुनि (ज्ञानी) सदैव जागते रहते हैं । आचार पालन में श्रेष्ठता व न्यूनता की दृष्टि से जैन संस्कृति दो विकल्प मानती है; श्रमणाचार (अनगारधर्म) व श्रावकाचार ( आगारधर्म) । आगारधर्म की अपेक्षा जैन परंपरा में अनगारधर्म को अधिक महत्त्व दिया गया है। इसका कारण है कि संयम का चरम तथा परम विकास श्रमण- जीवन में ही हो सकता है। श्रमण परम्परा का यह दृढ़ मन्तव्य है कि निर्वाण - लाभ श्रमणों को ही प्राप्त हो सकता है। उत्तराध्ययन'' में संयम के महत्त्व को बताते हुए कहा गया है- जो मानव प्रतिमाह दस लाख गायें दान देता है, उसके लिए भी संयम श्रेष्ठ है, भले ही उस अवस्था में श्रमणदीक्षा एवं चर्या 219
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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