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________________ तीर्थंकरों ने इस संस्कृति का पोषण किया और आज यही संस्कृति श्रमण संस्कृति के रूप में हमारे सामने है। भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित एवं परिवर्द्धित जैन संस्कृति की परम्परा का एक निश्चित क्रम हमें उपलब्ध होता है। इस परम्परा को विकसित करने में मुख्यतया तीन आधार परिलक्षित होते हैं- 1. स्वयं ऋषभदेव, 2. उनके बाद के बाईस तीर्थंकर 3. भगवान् महावीर व उनकी शिष्य परम्परा। इस प्रकार मानव सभ्यता के साथ उदित होकर श्रमण संस्कृति निरन्तर गतिशील रही। ऋषभदेव के समय से जन-साधारण को सुसंस्कृत बनाती हुई, भारतीय संस्कृति को करुणा और साधना का संदेश देती हुई, अन्तिम तीर्थंकर महावीर द्वारा ईसा पू. छठी शती में सुव्यवस्थित स्वरूप पाकर उनके अनुयायियों द्वारा देशव्यापी बन गई। श्रमण शब्द का अर्थ एवं स्वरूप श्रमण शब्द बहुत ही प्राचीन व व्यापक है। श्रमण शब्द का प्राकृत रूपान्तर 'समण' है। जैन शास्त्रों में इसके तीन अर्थ मिलते हैं; श्रमण, समन व शमन । प्रथम शब्द श्रमण का अर्थ है- परिश्रम करने वाला। श्रमण संस्कृति तप प्रधान संस्कृति है। तपस्या करना परिश्रम ही है। इस दृष्टि से श्रमण का अर्थ हुआ जो श्रम या तपस्या करते हैं। सूत्रकृतांग में श्रमण के इस अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा गया है- जो दांत है, द्रव्य है, भव्य है, शरीर के प्रति जिसने ममत्व का त्याग कर दिया हो, जो आत्मा व परमात्मा के लिए श्रम करे वह श्रमण है। भगवतीसूत्र के द्वितीय शतक में स्कन्दक परिव्राजक के जीवनवृत्त में श्रमण का यही स्वरूप परिलक्षित होता है। स्कन्दक परिव्राजक तीर्थंकर भगवान् महावीर के पास श्रमण दीक्षा अंगीकार कर कठोर तप साधना के द्वारा अपने शरीर को खिन्न करके अन्तिम लक्ष्य शुद्ध आत्म-स्वरूप को प्राप्त करते हैं। श्रमण शब्द के द्वितीय रूपान्तर 'समन' शब्द का अर्थ है- प्राणी मात्र के प्रति समभाव रखने वाला। अर्थात् जो राग-द्वेष से परे हो वह समन है। उत्तराध्ययन में कहा है कि सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता है समता से श्रमण होता है। उत्तराध्ययन' के कापिलीय अध्ययन में भी इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि पूर्व परिचित संयोगों का परित्याग करके, जो कहीं किसी वस्तु में स्नेह नहीं करता, स्नेह करने वालों के प्रति भी जो स्नेह नहीं दिखाता वह भिक्षु दोषों व प्रदोषों से मुक्त हो जाता है। प्रवचनसार में आचार्य कुंदकुंद ने कहा है- जो शत्रु व बंधु, निंदा व प्रशंसा, पाषाण व स्वर्ण, जीवन व मरण में समभाव रखता है, वह 218 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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