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श्रमणदीक्षा एवं चर्या
आचार शब्द का सामान्य अर्थ आचरण से लिया जाता है। भारतीय परम्परा में आचार शब्द सदाचार के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। आचार शब्द आङ् उपसर्ग पूर्वक चर् धातु है। वैयाकरणों ने चर धातु का मुख्य प्रयोग गति और भक्षण अर्थ में किया है। चर् धातु चलने के अर्थ में है। मन में शुभ विचारों का चलना विचार है, शुभवाणी का प्रयोग उच्चार है तथा शुभ विचारों का जीवन में धारण आचार है। इस प्रकार सदाचार शब्द विचार, आचार एवं उच्चार की विशुद्धता, पवित्रता तथा नियमबद्धता को ध्वनित करता है।
जैन परंपरा में आचार की पवित्रता पर विशेष बल दिया गया है। जैनागम आचारांग निर्यक्ति में आचार को अंगों का सार कहा गया है। जैन आचार संहिता का मूल आधार सम्यक् चारित्र है। तीर्थंकरों के उपदेशानुसार आचरण करना एवं उसके विपरीत मार्ग का परित्याग करना सम्यक् चारित्र है। जैन ग्रंथों में आचार संहिता का विवेचन साधु एवं गृहस्थ दोनों की योग्यता को ध्यान में रखते हुए किया गया है। आचार पालन में उत्कृष्टता एवं न्यूनता के आधार पर जैन आचार संहिता दो भागों में विभक्त है। 1. श्रमणाचार 2. श्रावकाचार। श्रमणाचार संहिता का मुख्य उद्देश्य आत्मसाक्षात्कार है जबकि श्रावक अथवा गृहस्थ की आचार संहिता में व्यक्ति एवं समाज दोनों का उत्थान समाहित है। श्रमण परम्परा*
परम्परा की दृष्टि से श्रमण परम्परा को अनादि कहा जा सकता है, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से 'ऋषभदेव' इस परम्परा के जनक माने गये हैं। ऋषभदेव ने सभ्यता व संस्कृति के प्रारम्भ में मानव को कर्म करने की प्रेरणा दी और उसके पुरुषार्थ को जाग्रत किया। ऋषभदेव के समय की संस्कृति एवं सभ्यता मानव के प्रारंभिक स्वरूप का परिचायक है। ऋषभदेव के बाद आने वाले 23 अन्य
निशीथ भाष्य में श्रमणों के पाँच प्रकार बताये हैं- निग्गंथ (खमण) सक्क (रक्तपड) तावस (वणवासी) गेरुअ (परिव्वायअ) और आजीविय (पंडराभिक्खु; गोशालक) (13.4420)। प्रस्तुत अध्याय में निग्रंथ श्रमण परंपरा की चर्या एवं आचार का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है।
श्रमणदीक्षा एवं चर्या
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