________________
विनयवादी
स्वर्ग, अपवर्ग आदि श्रेय का कारण विनय है। इसलिए विनय ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार विनय को एकान्त रूप से मानने वाले विनयवादी कहलाते हैं। इनका कोई आचार-शास्त्र नहीं होता है। सभी को नमस्कार करना ही इनका लक्ष्य होता है। इनके 32 अवान्तर भेद हैं। भगवतीसूत्र में विनयवाद के अनुयायी तपस्वियों के अन्तर्गत तामलीतापस, पूरण आदि तपस्वियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। ताम्रलिप्ति नगरी का तामली गृहपति प्राणामा प्रव्रज्या का धारक होने से इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, कुबेर, आर्या, चंडिका या राजा, मंत्री, पुरोहित, सार्थवाह, या कौवे, कुत्ते और चांडाल को जहाँ कहीं भी देखता प्रणाम करता। ऊँचे को देखकर ऊँचे प्रणाम करता, नीचे को देखकर नीचा प्रणाम करता। तामली की तरह ‘पूरण' गृहपति द्वारा 'दानामा' प्रव्रज्या अंगीकार करने का वर्णन ग्रंथ में आया है। इसके अतिरिक्त गोशालक के प्रसंग में वैश्यायन बाल-तपस्वी का उल्लेख भी हुआ है, जो कि ऊर्ध्वबाहु करके तप कर रहे थे।
प्रायः शास्त्रों में इन चारों समवसरणों को मिथ्यादृष्टि ही कहा गया है। परन्तु ग्रंथ में समवसरण नामक उद्देशक में 'क्रियावादी' शब्द से सम्यग्दृष्टि का ग्रहण किया गया है, जो जीव-अजीव का अस्तित्व मानने के साथ-साथ आत्मापरमात्मा, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य आदि के अस्तित्व को दृढ़तापूर्वक मानते हैं। सर्वज्ञ वचनों पर श्रद्धा रखकर चलते हैं। संदर्भ 1. व्या. सू., 2.5.12-19 2. उत्तराध्ययन, 23.12
व्या. सू., 1.9.21-23 वही, 9.32 वही, 9.33,86-96 विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2306-2307 व्या. सू., 1.2.19
भगवतीवृत्ति, अभयदेव पत्रांक, 49, 50 9. भगवतीवृत्ति, पत्रांक, 49-50 10. व्या. सू., 15.1.68 11. स्टेडिज इन द भगवतीसूत्र, पृ. 435-438
व्या. सू., 15.1.4, 6, 97 13. वही, 8.5.11 14. व्या. सू., 15.1.14, 17, 20, 23 214
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
12.
व्या .