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________________ धान्य आदि से जीवन-यापन करते थे।5 ये तापस-श्रमण गंगा के तट पर रहते और वानप्रस्थाश्रम का पालन करते थे। भगवतीसूत्र में निम्नलिखित वानप्रस्थतापसो का उल्लेख हआ है- अग्निहोत्री, पोतिक (वस्त्रधारी), कौत्रिक (पृथ्वी पर सोने वाले), याज्ञिक, श्राद्धी (श्राद्धकर्म करने वाले), खप्परधारी (स्थालिक), कुण्डिकाधारीश्रमण, दन्त-प्रक्षालक, उन्मज्जक, सम्मज्जक, निमज्जक, सम्प्रक्षालक, ऊर्ध्वकण्डुक, अध:कण्डुक, दक्षिणकूलक, उत्तरकूलक,शंखधमक (शंख फूंककर भोजन करने वाले), कूलधमक (किनारे पर खड़े होकर आवाज करके भोजन करने वाले), मुग्लुब्धक, हस्तीतापस, जल से स्नान किये बिना भोजन नहीं करने वाले, पानी में रहने वाले, वायु में रहने वाले, पट-मण्डप में रहने वाले, बिलवासी, वृक्षमूलवासी, जलभक्षक, वायुभक्षक, शैवालभक्षक, मूलाहारी, कन्दाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, फलाहारी, बीजाहारी, सड़कर टूटे या गिरे हुए कन्द, मूल, छाल, पत्ते, फूल और फल खाने वाले, दण्ड ऊँचा रखकर चलने वाले, वृक्षमूलनिवासी, मांडलिक, वनवासी, दिशाप्रोक्षी, आतापना से पंचाग्नि ताप तपने वाले (अपने शरीर को अंगारों से तपा कर काष्ट-सा बना देने वाले) इत्यादि। भगवतीसूत्र में तापसों के उपकरणों में लोढ़ी, लोहे की कड़ाही, कुडछी, और ताम्बे के तापसोचित उपकरणों का उल्लेख हुआ है। दिशाप्रोक्षण तापसचर्या दिशाप्रोक्षक तापस से तात्पर्य जल द्वारा दिशाओं का पूजन करने के पश्चात् फल, पुष्पादि ग्रहण करने वाले तापस से है। भगवतीसूत्र में उल्लेख है कि शिवराजर्षि द्वारा दिशाप्रोक्षक तापसों के पास मुण्डित होकर दिक्प्रोक्षक-तापसरूप प्रव्रज्या अंगीकार की गई। प्रव्रजित होने पर उन्होंने निरन्तर बेले-बेले की तपस्या द्वारा दिक्-चक्रवाल तप:कर्म करके दोनों भुजाओं को ऊँची रखने का संकल्प लिया। इस व्रत के अन्तर्गत प्रत्येक पारणे के दिन एक-एक दिशा का पूजन कर उसी दिशा के फल आदि का सेवन किया जाता है। भगवतीसूत्र में इस व्रत की विधि का विवेचन इस प्रकार किया गया है- 'शिवराजर्षि प्रथम बेले के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरे, वल्कलवस्त्र पहनकर कुटी में आये। वहाँ से किढीण (बाँस की छबड़ी) व कावड़ को लेकर पूर्व-दिशा का पूजन व प्रार्थना की। इसके पश्चात् पूर्व-दिशा में जो कंदमूल, छाल, पत्ते, पुष्प, फल, बीज और हरी वनस्पति थी, उन्हें छबड़ी में भर लिया। फिर दर्भ, कुश, समिधा और वृक्ष के पत्ते ग्रहण कर कुटी में आये। वहाँ वेदिका का प्रमार्जन किया, तत्पश्चात् महावीरेतर दार्शनिक परम्पराएँ 211
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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