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________________ आदि अथवा कपिलऋषि के शिष्य चरक कहलाते हैं। चरक आदि परिव्राजक प्रात:काल उठकर स्कन्द आदि देवताओं के गृह का परिमार्जन करके, देवताओं पर उपलेपन करते और उनके सामने धूपादि खेते थे। आचारांगचूर्णि30 में सांख्यों को चरकों का भक्त कहा है। दशवैकालिकनियुक्ति (गाथा 158-159) में श्रवण के बीस पर्यायवाची नामों में चरक का समावेश है। परिव्राजक महामनीषी होते थे। स्कन्दक परिव्राजक के प्रसंग में कहा गया है"वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, इन चार वेदों, पाँचवें इतिहास (पुराण), छठे निघण्टु नामक कोश का तथा सांगोपांग रहस्यसहित वेदों का सारक, वारक, धारक, वेद के छह अंगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र) का वेत्ता था। वह षष्ठितंत्र (सांख्यशास्त्र) में विशारद था। वह गणितशास्त्र, शिक्षाकल्प (आचार) शास्त्र, व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र, निरुक्त (व्युत्पत्ति) शास्त्र और ज्योतिषशास्त्र, इन सब शास्त्रों में, तथा दूसरे बहुत-से ब्राह्मण और परिव्राजक-संबंधी नीति और दर्शनशास्त्रों में भी अत्यन्त प्रवीण था।" वेशभूषा- भगवतीसूत्र में परिव्राजकों की वेशभूषा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि वे त्रिदण्ड, कुण्डी, रुद्राक्ष की माला, करोटिका, (मिट्टी का बर्तन) आसन, केसरिका (बर्तन साफ करने का कपड़ा), त्रिगडी, अंकुशक, (वृक्ष के पत्ते तोड़ने के लिए) पवित्री (अंगूठी), गणत्रिका (कलाई में पहनने का आभूषण), छत्र, पगरखी पादुका से युक्त होते थे तथा धातु से रंगे हुए वस्त्र (गेरुए कपड़े) पहनते थे। तपस्या- परिव्राजक साधु भिन्न-भिन्न प्रकार का तप करते थे। आलभिका नगरी का मुद्गल परिव्राजक निरन्तर बेले-बेले की तपस्या करता हुआ आतापनाभूमि में दोनों भुजाएँ ऊँचीकर आतापना लेता था। अम्बडपरिव्राजक व उसके 700 शिष्यों की तपस्या का वर्णन औपपातिकसूत्र में है। जब वे काम्पिल्यपुर से पुरिमताल नगर की ओर जा रहे थे तभी अटवी में प्रवेश करते ही उनका पीने का पानी समाप्त हो गया। पास में ही गंगा में निर्मल जल बह रहा था, किन्तु 'अदत्त' की प्रतिज्ञा के कारण वे जल ग्रहण नहीं करते हैं। प्यास से व्याकुल होने पर उनके प्राण संकट में पड़ जाते हैं। अन्त में सभी साधक अर्हन्त भगवान् को नमस्कार कर संथारा ग्रहण कर काल कर जाते हैं। वानप्रस्थ तापस वनवासी साधुओं को तापस कहा गया है। ये तापस वनों में आश्रम बनाकर रहते थे। वहीं ध्यान, अध्ययन, यज्ञ-याग आदि करते और कंदमूल, फल, छाल, 210 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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