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ब्राह्मण की गोशाला में पहुँचा। वहीं पर भद्रा ने एक बालक को जन्म दिया। ब्राह्मण की गोशाला में जन्म लेने के कारण बालक का नाम गोशालक रखा गया। युवा होने पर गोशालक ने स्वयं अपना चित्रफलक तैयार किया और मंखवृत्ति से भिक्षा माँगते हुए विचरण करने लगा।
इधर दीक्षा पर्याय के प्रथम वर्ष में वर्षावास हेतु तीर्थंकर महावीर राजगृह नगर में नालन्दा पाड़ा के बाहर किसी तन्तुवायशाला में ठहरे हुए थे। उसी समय गोशालक भी वहीं पहुँचा और वह भी उसी तन्तुवायशाला के एक भाग में रहने लगा। वहाँ रहते हुए भगवान् महावीर के तप के तेज से गोशालक अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसने महावीर से स्वयं को अपना शिष्य बनाने की इच्छा प्रकट की। महावीर ने उसे अपना शिष्य स्वीकार किया। छः वर्ष तक गोशालक महावीर के साथ विचरण करता रहा।
एक दिन सिद्धार्थग्राम और कूर्मग्राम के बीच विहार करते हुए गोशालक ने महावीर से तिल के पौधे की निष्पत्ति को लेकर प्रश्न किया। महावीर ने यथातथ्य उत्तर दिया। महावीर के उत्तर को मिथ्या सिद्ध करने हेतु गोशालक ने वह पौधा उखाड़कर दूर फेंक दिया, किन्तु संयोगवश हुई वृष्टि के कारण वह तिल का पौधा पुनः मिट्टी में जम गया।
उसी काल में कूर्मग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नामक बाल तपस्वी तपश्चरण में लीन थे। गोशालक ने उनसे छेड़छाड़ की। इस पर वैश्यायन तपस्वी ने क्रुद्ध होकर गोशालक पर ऊष्ण तेजालेश्या से प्रहार कर दिया। तब भगवान् महावीर ने गोशालक की प्राण रक्षा हेतु शीत तेजोलेश्या का प्रतिघात किया। यह देखकर वैश्यायन द्वारा अपनी ऊष्ण तेजोलेश्या पुनः खींच ली गई। यह सब देखकर गोशालक ने महावीर से तेजोलेश्या की प्राप्ति की विधि पूछी। महावीर ने गोशालक को तेजोलेश्या प्राप्त करने की विधि बताकर उसकी जिज्ञासा का समाधान किया।
इसके पश्चात् किसी दिन पुनः कूर्मग्राम और सिद्धार्थग्राम के बीच विहार करते हुए महावीर ने गोशालक को वही तिल का हरा-भरा पौधा दिखाया और कहा 'हे गोशालक! तुमने उस दिन इस पौधे को उखाड़ दिया था, किन्तु मेरे कहे अनुसार यह पौधा निष्पन्न हुआ है क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव मर-मरकर उसी वनस्पतिकाय के शरीर में पुनः उत्पन्न हो जाते हैं।'
इसी घटना के बाद गोशालक महावीर से पृथक् होकर विचरण करने लगा। कालान्तर में उसने महावीर द्वारा बताई गई विधि के अनुसार घोर तपश्चरण करके
महावीरेतर दार्शनिक परम्पराएँ
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