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________________ विभिन्न प्रश्न पूछे। स्थविरों द्वारा उनका समाधान किया गया। उत्तराध्ययन में भगवान पार्श्व को चातुर्याम धर्म का संस्थापक तथा भगवान् महावीर को पंच महाव्रतरूप धर्म का प्रणेता स्वीकार किया गया है। चातुर्याम धर्म से तात्पर्य है चार महाव्रत वाला वह धर्म जिसे महामुनि पार्श्व ने बताया। ये चार महाव्रत इस प्रकार हैं- 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. चौर्य त्याग, 4. बहिद्धा-दानत्याग (यहाँ अपरिग्रह के स्थान पर बहिद्धा-दानत्याग शब्द का प्रयोग हुआ है)। भगवान् पार्श्वनाथ ने ब्रह्मचर्य महाव्रत को परिग्रह त्याग में ही समाविष्ट कर दिया था, क्योंकि उन्होंने मैथुन को परिग्रह के अंतर्गत ही माना था। भगवान् महावीर के समय तक बहिद्धादानत्याग महाव्रत के संबंध में कुछ मिथ्या मान्यताएँ व कुतर्क प्रचलित हो गये। इनके निराकरण के लिए भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य को चतुर्थ महाव्रत के रूप में पृथक् स्थान दिया और पंच महाव्रतात्मक धर्म इस प्रकार बताया 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अचौर्य, 4. ब्रह्मचर्य, 5. अपरिग्रह भगवतीसूत्र में उल्लेख हुआ है कि पार्थापत्यीय अनगार कालास्यवेषि पुत्र भगवान् महावीर के स्थविर भगवंतों के साथ सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक, व्युत्सर्ग आदि के विषय में अपनी शंकाओं का समाधान करते हैं। अंत में उनसे प्रभावित होकर चातुर्याम धर्म के स्थान पर पंच महाव्रतरूप धर्म स्वीकार करते हैं। पार्थापत्यीय गांगेय अनगार की भगवान् महावीर के साथ अनेक विषयों पर चर्चा का ग्रंथ' में विस्तार से वर्णन किया गया है। भगवान महावीर के पास अपनी शंकाओं का समाधान कर गांगेय अनगार महावीर के सर्वज्ञ व सर्वदर्शी रूप से अवगत होते हैं तथा चातुर्याम धर्म के स्थान पर पंच महाव्रतरूप धर्म को स्वीकार करते हैं। जमालि भगवतीसूत्र के अध्ययन से यह तथ्य भी उजागर होता है कि जमालि अनगार ने भगवान् महावीर के काल में ही उनसे पृथक् होकर अपने नये सिद्धान्त की प्ररूपणा की थी। अर्थात् जैन धर्म में यहीं से मतभेद का प्रारम्भ हो गया था। जमालि अनगार ने 500 पुरुषों के साथ भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी। किन्तु, अत्यंत महत्त्वाकांक्षी तथा अहंकारी होने के कारण ये भगवान् महावीर की अनुमति लिए बिना ही अपने अनुयायियों के साथ अन्यत्र विहार कर गये और एक दिन उन्होंने अपने पृथक् सिद्धांत का निरूपण किया। इसका उल्लेख ग्रंथ में इस प्रकार हुआ है- 'प्रबल वेदना से ग्रस्त जमालि अनगार द्वारा आदेश देने पर महावीरेतर दार्शनिक परम्पराएँ 201
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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