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________________ वस्तु के पारमार्थिक-तात्त्विक-शुद्ध स्वरूप का ग्रहण निश्चयनय से होता है और अशुद्ध-अपारमार्थिक स्वरूप का ग्रहण व्यवहार नय से होता है। अपने-अपने क्षेत्र में ये दोनों नय सत्य हैं क्योंकि व्यवहार में लोक इन्द्रियों के दर्शन की प्रधानता से वस्तु के स्थूल रूप का निर्णय करते हैं, और अपना निर्बाध व्यवहार चलाते हैं परन्तु इस स्थूल रूप के अतिरिक्त वस्तु का सूक्ष्मरूप भी है, जो इन्द्रियगम्य नहीं है केवल प्रज्ञागम्य है। यही निश्चय नय है। इन दोनों नयों के द्वारा ही वस्तु का सम्पूर्ण दर्शन होता है। भगवतीसूत्र में वस्तु के स्वरूप प्रतिपादन में दोनों नयों का प्रयोग किया गया है। फाणित (प्रवाही) गुड के स्वरूप को दोनों नयों से समझाते हुए कहा है कि व्यावहारिक नय से तो गुड़ मधुर ही है, किन्तु नैश्चयिक नय की अपेक्षा से वह पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और आठ स्पर्शों से युक्त है। इसी प्रकार भ्रमर, तोते की पाँख, राख आदि वस्तुओं के स्वरूप का विश्लेषण व्यावहारिक व नैश्चयिक नयों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। भगवतीसूत्र में वर्णित विभिन्न प्रकार के नयों के प्रारंभिक स्वरूप को समझकर ही हम इनके विकसित स्वरूप (सात नयों) को समझ सकते हैं। नयों के सही प्रयोग द्वारा ही जैन-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त अनेकान्तवाद को समझा जा सकता है। परवर्ती जैनाचार्यों ने इन्हीं के माध्यम से तत्त्वविज्ञान, आचारविज्ञान आदि से संबंधित अनेक प्रश्नों का समाधान किया है। संदर्भ 1. (क) एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति - ऋग्वेद, 1.164.46, (ख) वही, 10.129 2. मज्झिमनिकाय, सुत्त, 99 3. जैन, रमेशचन्द्र - अनेकान्त एवं स्याद्वाद् विमर्श 4. मालवणिया, दलसुख - आगमयुग का जैन दर्शन , पृ. 51-52 व्या. सू., 16.6.20-21 6. आगम युग का जैन दर्शन, पृ. 53 मेहता, मोहनलाल - जैन धर्म-दर्शन , पृ. 335-336 व्या. सू.,7.2.1 9. वही, 12.2 10. सन्मति प्रकरण, प्रस्तावना, पृ. 84 11. आत्मख्याति टीका, 10.247 12. सूत्रकृतांग, मुनि मधुकर, 1.14.22, पृ. 435 13. आगम-युग का जैन दर्शन, पृ. 54 5. 196 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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