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________________ यद्यपि आगे चलकर जैनागमों में मूल नयों की संख्या सात मानी गई है। नैगम आदि। लेकिन अपनी व्यापकता के कारण ये दोनों दृष्टियाँ सातों मूल नयों को अपने में समाहित किये हुए हैं। द्रव्यार्थिक दृष्टि वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन करती है तथा पर्यायार्थिक दृष्टि वस्तु की अनित्यता का प्रतिपादन करती है। नारक जीवों की नित्यता व अनित्यता को प्रस्तुत करते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया हैअव्युच्छित्तिनय (द्रव्यार्थिक नय) की अपेक्षा से नारक शाश्वत है और व्यच्छित्तिनय की अपेक्षा से नारक अशाश्वत है।2. भगवतीसूत्र में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करते हुए द्रव्य दृष्टि को अभेदगामी व पर्यायार्थिक दृष्टि को भेदगामी बताया गया है। सोमिल ब्राह्मण के साथ हुए प्रश्रोत्तर में भगवान् महावीर ने कहा है'द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूँ व ज्ञान-दर्शन की दृष्टि से मैं अनेकभूत-भाव-भाविक भी हूँ।”3 स्पष्ट है कि द्रव्यदृष्टि नित्य व एकत्वगामी है। क्योंकि नित्य एकरूप होता है तथा पर्यायदृष्टि अनित्य व अनेकत्वगामी है। इस प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें सभी दृष्टियों का समावेश सहज रीति से हो जाता है। द्रव्यार्थिक-प्रदेशार्थिक भगवतीसूत्र में द्रव्य व पर्याय दृष्टि के साथ-साथ वस्तु स्वरूप के वर्णन में द्रव्य व प्रदेश दृष्टि का भी प्रयोग किया गया है। द्रव्यदृष्टि से जो वस्तु एक हो सकती है, वही वस्तु प्रदेशों की दृष्टि से अनेक भी हो सकती है। क्योंकि उसमें रहे हुए प्रदेशों की संख्या अनेक होती है। प्रदेश व पर्याय में अन्तर स्पष्ट करते हुए मालवणिया जी ने लिखा है कि एक ही द्रव्य की नाना अवस्थाओं को या एक ही द्रव्य के देशकाल कृत नाना रूपों को पर्याय कहा जाता है। जबकि द्रव्य के घटक अर्थात् अवयव ही प्रदेश कहे जाते हैं। कुछ द्रव्यों के प्रदेश नियत होते हैं जैसेजीव, धर्म, अधर्म, आकाश के प्रदेश नियत हैं, वे घटते-बढ़ते नहीं हैं जबकि पुद्गल के प्रदेश में न्यून-अधिकता रहती है, वे घटते-बढ़ते हैं। सोमिल ब्राह्मण के साथ हुए प्रश्नोत्तर में द्रव्य, पर्याय, प्रदेश व गुण दृष्टि द्वारा विरोध परिहार का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। पर्याय दृष्टि से भिन्न प्रदेश दृष्टि को स्वीकार करते हुए भगवान् महावीर ने स्वयं को आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से अक्षय, अव्यय व अवस्थित रूप में स्वीकार किया है। यहाँ प्रदेश दृष्टि का उपयोग जीव के अक्षयादि धर्मों को दृष्टि में रखकर किया गया है क्योंकि आत्मा के प्रदेश 194 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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