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________________ भाव की दृष्टि से वस्तु के चार भेद किये गये हैं । " यथा - परमाणु चार प्रकार बताया गया है; द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु व भाव परमाणु। इसी प्रकार लोक के चार भेद किये गये हैं; द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक व भावलोक । भगवतीसूत्र में कहीं-कहीं वस्तु के स्वरूप वर्णन में चार से अधिक दृष्टियों का भी प्रयोग हुआ है। लोक के आधारभूत द्रव्यों- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म व आकाश के स्वरूप के वर्णन में द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के साथ-साथ गुण को भी समाविष्ट किया गया है। 7 इसी प्रकार तुल्यता पर विचार करते समय द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के साथ भव तथा संस्थान को भी स्थान दिया गया है। 68 1 वस्तुतः मुख्य रूप से तो दृष्टियाँ चार ही हैं, चार से अधिक दृष्टियों को बताते समय भाव के अवान्तर भेदों को ही भाव से पृथक् करके स्वतंत्र स्थान दिया गया है। धर्मास्तिकायादि द्रव्यों को जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व गुण दृष्टि से पाँच प्रकार का बताया तब भाव विशेष दृष्टि को गुण के रूप में पृथक् स्थान दिया है, यह स्पष्ट है। क्योंकि गुण वस्तुतः भाव अर्थात् पर्याय ही है । इसी प्रकार करण के पाँच प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव व भाव बताये हैं तब वहाँ भी प्रयोजनवशात् भाव-विशेष भव को पृथक् स्थान दिया गया है और इसी तरह तुल्यता का विचार करते समय भाव विशेष भव तथा संस्थान को स्वतंत्र स्थान दिया गया है। अतः मध्यम मार्ग से चार दृष्टियाँ ही ग्रंथ में मुख्य रूप से विवेचित हुई हैं। द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक" भगवतीसूत्र में प्रायः वस्तुस्वरूप के वर्णन में चार दृष्टियों का प्रयोग हुआ है, किन्तु ग्रंथ में अन्यत्र इन चारों दृष्टियों का समावेश दो नयों में किया गया है। द्रव्यार्थिकनय व भावार्थिकनय (पर्यायार्थिक नय) । ग्रंथ में कहा गया है कि द्रव्य की दृष्टि से जीव शाश्वत है व भाव (पर्याय) दृष्टि से जीव अशाश्वत है। परमाणु की शाश्वतता व अशाश्वतता के विवेचन में द्रव्य व पर्याय दृष्टि का प्रयोग किया गया है । स्पष्ट है कि भगवतीसूत्र में पर्यायार्थिक नय के लिए भाव व पर्याय दोनों शब्द का प्रयोग हुआ है। वस्तुतः देखा जाय, तो काल और देश (क्षेत्र) के भेद से द्रव्यों में विशेषताएँ अवश्य होती हैं । अतएव काल और क्षेत्र, पर्यायों के कारण होने से, यदि पर्यायों में समाविष्ट कर लिए जाए तब तो मूलत: दो ही दृष्टियाँ रह जाती हैंद्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । आचार्य सिद्धसेन ने इस बात को इंगित करते हुए कहा है कि भगवान् महावीर के प्रवचन में वस्तुत: ये ही मूल दो दृष्टियाँ हैं, शेष सभी दृष्टियाँ इन्हीं दो की शाखाएँ - प्रशाखाएँ हैं । अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं नयवाद 193
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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