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प्रतिपादित करने वाले कारण की खोज कर उस मत के समर्थन में उस कारण को प्रस्तुत कर नयवाद का प्रतिपादन किया है। नय की परिभाषा
ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं, जो प्रमाण द्वारा जानी गई वस्तु के एक देश को स्पर्श करता है। वस्तुतः प्रमाण वस्तु के पूर्ण रूप को ग्रहण करता है तथा नय प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश को जानता है। आचार्य समन्तभद्र ने
आप्तमीमांसा में नय की परिभाषा इस प्रकार दी है- स्याद्वाद प्रविभक्तार्थविशेष व्यञ्जको नयः - (106) अर्थात् स्याद्वाद के द्वारा गृहीत अर्थ के विशेषों अर्थात् धर्मों का जो अलग-अलग कथन करता है, उसे नय कहते हैं।
प्रमाण को सकलादेशी व नय को विकलादेशी कहा गया है। प्रमाण के द्वारा जानी गई वस्तु को शब्द की तरंगों से अभिव्यक्त करने के लिए जो ज्ञान का रूझान है वह नय है। नय प्रमाण से उत्पन्न होता है, अतः प्रमाणात्मक होकर भी अंशग्राही होने के कारण पूर्ण प्रमाण नहीं कहा जा सकता। नय प्रमाणरूपीसागर का वह अंश है, जिसे ज्ञाता ने अपने अभिप्राय के पात्र में भर लिया है। वास्तव में अनेकधर्मात्मक वस्तु को जानने के लिए नयवाद का सहारा लिया जाता है। सापेक्षता का मूल आधार नयवाद ही है। नय के प्रकार
आचार्य सिद्धसेन के अनुसार वचन के जितने भी प्रकार या मार्ग हो सकते हैं, नय के भी उतने ही भेद हैं। नय के जितने भेद हैं, उतने ही मत हैं। इस दृष्टि से नय के अनन्त प्रकार हो सकते हैं। किन्तु, जैन-दर्शन में श्वेताम्बर व दिगम्बर परंपरा के ग्रंथों में नयों की संख्या मुख्य रूप से सात मानी गई है; स्थानांगसूत्र, अनुयोगद्वार, राजवार्तिक आदि ग्रंथों में निम्न सात नयों का उल्लेख हुआ है।
1. नैगम, 2. संग्रह, 3. व्यवहार, 4. ऋजुसूत्र, 5. शब्द, 6. समभिरूढ़, 7. एवंभूत।
इन सातों नयों में शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय शब्द को विषय करने के कारण शब्दनय हैं तथा नैगम, संग्रह, व्यवहार व ऋजुसूत्र अर्थ को विषय करने के कारण अर्थनय हैं। आचार्य सिद्धसेन7 ने नैगमनय को स्वतंत्र न मानकर नय के छः भेद माने हैं। आचार्य उमास्वाति ने मूलरूप से नय के पाँच ही भेद स्वीकार किये हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन