SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवतीसूत्र में नय विवेचन भगवतीसूत्र जैन तत्त्वविद्या का आकर ग्रंथ है। ग्रंथ में तत्त्वविद्या के प्रश्नों के समाधान में भगवान् महावीर द्वारा अनेकान्तदृष्टि का प्रयोग किया गया और अनेकान्तदृष्टि का मूल आधार नयवाद ही है। इस संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवई59 खण्ड-1 की प्रस्तावना में लिखा है कि प्रस्तुत आगम में तत्त्वविद्या का प्रारंभ 'चलमाणे चलिए' इस प्रश्न से होता है। जैन दर्शन में प्रत्येक तत्त्व का प्रतिपादन अनेकान्त की दृष्टि से होता है। एकान्त दृष्टि के अनुसार चलमान और चलित दोनों एक क्षण में नहीं हो सकते। अनेकान्त की दृष्टि के अनुसार चलमान और चलित दोनों एक क्षण में होते हैं। समूचे आगम में अनेकान्त दृष्टि का पूरा उपयोग किया गया है अनेकान्त का स्वरूप है नयवाद या दृष्टिवाद। मध्य युग में तर्कप्रधान आचार्यों ने अनेकान्त का प्रमाण के साथ संबंध स्थापित किया है, वह मौलिक नहीं है। अनेकान्तवाद के अनुसार प्रमाण औपचारिक है, वास्तविक है नय। इस कथन से नयों का महत्त्व उजागर होता है। नय का उद्गम । वर्तमान में जैन परंपरा में नय का जो रूप है, उसका प्रारंभिक स्वरूप कैसा रहा होगा? नयों का उद्भव कहाँ से हुआ? इन प्रश्नों का उत्तर खोजने पर हमें दो परंपराएँ प्राप्त होती हैं, जो समकालीन ही प्रतीत होती हैं। प्रथम परंपरा भगवतीसूत्र में मिलती है, जहाँ नय के मुख्य रूप से द्रव्यार्थिक व भावार्थिक ये दो भेद किये गये हैं। यहाँ भावार्थिक नय से तात्पर्य पर्यायार्थिक नय से ही है। दूसरी परम्परा कषायपाहुड चूर्णि61 नामक ग्रंथ में उपलब्ध होती है। यहाँ नय के पाँच भेदों की चर्चा की गई है- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र व शब्द नय। इन दोनों परंपराओं में से भगवतीसूत्र में उल्लेखित परंपरा ही अधिक प्राचीन सिद्ध होती है क्योंकि बाद के दिगम्बर व श्वेताम्बर जैनाचार्यों ने जो ग्रंथ लिखे उन्होंने स्पष्ट रूप से द्वितीय परम्परा के पाँचों नयों का समावेश प्रथम परम्परा के दो नयों में किया है। उनका यह विवेचन स्पष्ट करता है कि भगवतीसूत्र में विवेचित नय का स्वरूप नयवाद का उद्गम स्थल रहा है। यह विवेचन नय के प्राचीन स्वरूप को ही स्पष्ट करता है। भगवतीसूत्र के अध्ययन से दूसरी महत्त्वपूर्ण जानकारी यह प्राप्त होती है कि इसमें नय की न तो कोई व्यवस्थित परिभाषा दी गई है न ही परवर्ती ग्रंथों में प्राप्त अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं नयवाद 191
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy