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________________ षट्प्रदेशिक स्कन्ध के संबंध में प्रश्न करने पर 23 भंगों की योजना भी प्रस्तुत की गई है। इन सभी के मूल में भी सात ही भंग हैं, शेष सभी भेद एकवचन व बहुवचन की अपेक्षा से किये गये हैं। भगवतीसूत्र में प्रस्तुत किये गये उक्त उदाहरण इस बात को पूर्णरूप से प्रतिपादित करते हैं कि सभी विरोधी धर्म-युगलों को लेकर सात ही भंग हो सकते हैं। इससे अधिक भंगों की जो संख्या सूचित की गई है वह मौलिक भंगों के भेद के कारण नहीं है, सिर्फ वचन की अपेक्षा मात्र से है। अतः यह स्वीकार करने में कोई संदेह नहीं कि भगवतीसूत्र में सप्तभंगी का मूल रूप सुरक्षित है। भगवतीसूत्र में प्रतिपादित भंग योजना के भिन्न-भिन्न उदाहरणों से निम्न निष्कर्ष फलित होते हैं- (1) स्याद्वाद के भिन्न-भिन्न भंगों के उत्थान में वस्तु के विधिरूप और निषेधरूप इन्हीं दोनों विरोधी धर्म युगलों की स्वीकृति अपेक्षित है। (2) उक्त दोनों भंगों से शेष सभी भंगों की रचना के लिए अपेक्षा कारण अवश्य होना चाहिये। (3) भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं की सूचना के लिए प्रत्येक भंगवाक्य में 'स्यात्' ऐसा पद रखा जाना चाहिये। इसी से यह वाद स्याद्वाद कहलाता है। (4) मूल भंग सात हैं। शेष भंग इन्हीं सात भंगों की एक वचन अथवा बहुवचन से विवक्षा के कारण है। (5) सकलादेश व विकलादेश की कल्पना भी भगवतीसूत्र की सप्तभंगी में विद्यमान थी। प्रारंभ के तीन भंग सकलादेशी भंग हैं तथा शेष भंग विकलादेशी हैं। नयवाद 'नय' जैन दर्शन की एक विशिष्ट अवधारणा है, अन्य किसी दर्शन में उपलब्ध नहीं है। जैन परंपरा अर्हत्वाणी के उद्भव के साथ-साथ ही नय का उदभव मानती है। नयवाद वस्तु के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए विभिन्न एकांगी दृष्टियों का सुन्दर समन्वय कर सर्वांगीण दृष्टि को प्रस्तुत करता है। प्रायः जितने भी दर्शन हैं, वे अपना एक विशिष्ट पक्ष प्रस्तुत करते हुए विपक्ष का निरासन करते हैं। लेकिन जैन-दर्शन ने उन सभी दर्शनों का अवलोकन कर उन्हें समझने का प्रयास किया और यह निष्कर्ष निकाला कि नाना मनुष्यों के वस्तुदर्शन में जो भेद हो जाता है, उसका कारण केवल वस्तु की अनेकरूपता या अनन्तधर्मात्मकता ही नहीं है अपितु मनुष्यों का अपना दृष्टिभेद भी है। अतः जैन-दर्शन ने किसी मत का निरासन न करते हुए सभी मतों व दर्शनों को वस्तुरूप के दर्शन में योग्य स्थान दिया है। प्रत्येक मत में से कदाग्रह के विष को निकालकर उस मत में सच्चाई को अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं नयवाद 189
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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