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________________ भंगों का स्वरूप व क्रम जैन-परंपरा में भंग सात माने गये हैं। भगवतीसूत्र में यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है कि सप्तभंगी का यह रूप किस प्रकार विकसित हुआ है। प्रारंभ में तो विधि, निषेध, उभय और अवक्तव्य (अनुभय) इन चार भंगों की कल्पना ही हुई थी। इसके अनेक उदाहरण प्रस्तुत ग्रंथ में मिलते हैं, जो यह स्पष्ट करते हैं कि किसी वस्तु का वर्णन प्रमुखतया चार विकल्पों के आधार पर प्रस्तुत किया जा सकता है अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा। अत्थेगइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा - (1.1.7) अर्थात् कितने ही जीव आत्मारंभी भी हैं, परारम्भी भी हैं और उभयारंभी भी हैं, किन्तु अनारंभी नहीं हैं। कितने ही जीव आत्मारंभी नहीं हैं, परारंभी नहीं हैं, और न ही उभयारंभी हैं, किन्तु अनारंभी हैं। पोग्गलत्थिकाए णं भंते! किं गरुए, लहुए, गरुयलहुए, अगरुयलहुए? गोयमा! णो गरुए, नो लहुए, गरुयलहुए वि, अगरुयलहुए वि - (1.9.8) भगवन्! पुद्गलास्तिकाय क्या गुरु है, लघु है, गुरुलघु है अथवा अगुरुलघु है? गौतम! पुद्गलास्तिकाय न गुरु है, न लघु है, किन्तु गुरुलघु है और अगुरुलघु भी है। भगवतीसूत्र में इन चार पक्षों का समन्वय करने वाले ओर भी कई उदाहरण मिलते हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि स्याद्वाद के मौलिक भंग चार हैं। 1. स्याद् सत् (विधि) 2. स्याद् असत् (निषेध) 3. स्याद् सत् स्याद् असत् (विधि-निषेध) 4. स्याद् अवक्तव्य (अनुभय) अवक्तव्य का स्थान43 इन चार भंगों में से अन्तिम भंग अवक्तव्य है, वह दो प्रकार से हो सकता है; 1. प्रथम के दो भंगरूप से वाच्यता का निषेध करके। 2. प्रथम के तीनों भंगरूप से वाच्यता का निषेध करके। 186 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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