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प्रथम दो भंग रूप से जब वाच्यता का निषेध किया जाता है तो अवक्तव्य का स्थान तीसरा होता है तथा प्रारंभ के तीनों भंग रूप से वाच्यता का निषेध करके जब वस्तु को अवक्तव्य कहा जाता है, तब अवक्तव्य का स्थान भंगों के क्रम में चौथा हो जाता है। भगवतीसूत्र में अवक्तव्य को तीसरे स्थान पर रखा गया है। इसी परंपरा का अनुसरण करके आगे आचार्य उमास्वाति सिद्धसेन45 तथा जिनभद्र आदि आचार्यों ने अवक्तव्य को तीसरा स्थान दिया। आचार्य समन्तभद्र ने अवक्तव्य को चौथा स्थान दिया है। आचार्य कुंदकुंद ने पंचास्तिकाय में चौथा तथा प्रवचनसार' में तीसरा स्थान माना है। अन्य भंग-योजना
भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने चार भंगों के अतिरिक्त अन्य भंगों की भी योजना की है। ग्रंथ में आये उदाहरण न केवल आगमकाल में भंगों के स्वरूप को ही स्पष्ट करते हैं अपितु आगमोत्तरकालीन जैन दार्शनिकों ने सात भंगों को ही स्वीकार किया, इसके मूल को भी स्पष्ट करते हैं। तीन भंगों की योजना का यह उदाहरण दृष्टव्य है- गोयमा! रयणप्पभा पुढवी 1 सिय आया, 2 सिए नो आया, 3 सिय अवत्तव्वं-आया ति य, नो आया ति य - (12.10.19) अर्थात् 1 रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मरूप है, 2 स्यात् नो-आत्मरूप है, 3 स्यात् आत्मा है भी और आत्मा नहीं भी है अतः अवक्तव्य है।
उक्त उदाहरण में अस्ति, नास्ति तथा अवक्तव्य इन तीन भंगों की योजना प्रतिपादित हुई है। इसी प्रकार सभी पृथ्वियों, सभी देवलोकों, सिद्ध, परमाणुपुद्गल आदि के सम्बन्ध में किये गये प्रश्रोत्तरों में इन तीनों भंगों का प्रतिपादन है।
द्विप्रदेशीस्कंध के संबंध में किये गये प्रश्न के उत्तर में छ: भंगों की योजना इस प्रकार प्रस्तुत की गई है- गोयमा! 1 दुपएसिए खंधे सिय आया, 2 सिय नो आया, 3 सिय अवत्तव्वं-आया ति य नो आया ति य, 4 सिय आया य नो आया य, 5 सिय आया य अवत्तव्वं-आया ति य नो आया ति य, 6 सिय नो आया य अवत्तव्वं-आया ति य नो आया ति य - (12.10.28) अर्थात् गौतम! 1 द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है, 2 स्यात् नोआत्मा है, 3 स्यात् आत्मरूप व नोआत्मरूप होने से अवक्तव्य है। 4 स्यात् आत्मरूप और नोआत्मरूप है, 5 स्यात्
आत्मरूप व आत्मरूप और नोआत्मरूप दोनों होने से अवक्तव्य है, 6 स्यात् नोआत्मरूप व अवक्तव्य है। ----
अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं नयवाद
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