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________________ छः भेद तथा आभ्यान्तर तप के प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान तथा व्युत्सर्ग ये छ: भेद किये हैं। परीषह विवेचन में 22 परीषहों का उल्लेख करते हुए उनका ज्ञानावरणीय, वेदनीय, अन्तराय व मोहनीय इन चार कर्म प्रकृतियों में समावेश किया गया है। इसके पश्चात् 12 भिक्षु प्रतिमाएँ, गुणरत्नसंवत्सर तप तथा संलेखनापूर्वक समाधिमरण का विस्तार से विवेचन प्रस्तुत किया गया है। श्रमणाचार की तरह भगवतीसूत्र में श्रावकाचार पर विस्तार से वर्णन नहीं हुआ है। विभिन्न श्रमणोपासकों के प्रकरणों तथा उनकी जीवनचर्या से श्रावक के विभिन्न आचार-व्रतों पर प्रकाश पड़ता है। सोमिल ब्राह्मण के प्रसंग में श्रावक के बारह व्रतों का उल्लेख हुआ है। शंख श्रावक के प्रकरण में पौषधव्रत की विधि व महत्ता वर्णित हुई है। तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों की जीवनचर्या श्रावक के आचार पर विशेष प्रकाश डालती है। अतः सोलहवें अध्याय में अन्य श्रावकाचार के ग्रन्थों के आधार पर श्रावकाचार पर एक क्रमबद्ध विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इस सम्पूर्ण विवेचन से यह ज्ञात होता है कि भगवतीसूत्र में ज्ञान के साथ-साथ आचार को भी महत्त्व दिया गया है। उसी व्यक्ति को सच्चा आराधक माना है जो श्रुत सम्पन्न होने के साथ-साथ शील सम्पन्न भी है। स्कन्दक मुनि की जीवन चर्या के विवरण द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है कि एक साधारण व्यक्ति किस प्रकार श्रमण दीक्षा को अंगीकार कर पंच महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि सामान्य साध्वाचारों का पालन करते हुए तप आदि विशेष साध्वाचारों से कर्मों का क्षय कर मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर होता है। इस अध्याय में श्रावकाचार के वर्णन में यह बात स्पष्ट होती है कि आचारवान श्रावक का जीवन गृहस्थ होते हुए भी मुनि जीवन का लघु संस्करण होता है। श्रावक के बारह व्रत जहाँ एक ओर व्यक्ति के धार्मिक जीवन की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं वहीं दूसरी ओर वे व्यक्ति के उच्च नैतिक व सामाजिक जीवन के संचालन में भी सहायक होते हैं। प्रस्तुत कृति के अन्तिम सत्तरहवें अध्याय में कर्म सिद्धान्त पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। आचारांग, सूत्रकृतांग आदि ग्रन्थों के आधार पर कर्म के स्वरूप का वर्णन करने के पश्चात् भगवतीसूत्र में वर्णित कर्म के स्वरूप को विवेचित किया गया है। प्रमाद व योग को कर्मबंध का प्रमुख कारण माना है। कर्म सिद्धान्त के विवेचन में ईश्वर व कर्मफल, पापकर्म व पुण्यकर्म का प्राक्कथन XIX
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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