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फल, बंध, बंध के दो प्रकार- ऐर्यापथिक बंध व साम्परायिक बंध, योग, कषाय, कर्म-प्रकृतियाँ, लेश्या आदि का भी विवेचन किया गया है। अन्त में कांक्षामोहनीय कर्म के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि भगवतीसूत्र में जीव को कर्म का कर्ता माना गया है। जीव के कर्म आत्मकृत हैं, कर्मों का उपचय जीव स्वप्रयत्न से करता है स्वयं ही उसकी गर्दा, संवर व निर्जरा करता है। जीव को कर्मों का कर्ता के साथसाथ कर्मफल का भोक्ता भी स्वीकार किया है। कृत कर्म भोगे बिना मोक्ष संभव नहीं, इस मान्यता का प्रतिपादन किया गया है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो ही जाता है कि भगवतीसूत्र आगम विज्ञान का ऐसा कोश है जिसमें जिन-वचन की सम्पूर्ण ज्ञान राशि का समावेश है। लोकस्वरूप व षड्द्रव्य विवेचन में सम्पूर्ण द्रव्यविज्ञान समाहित है। ज्ञान, प्रमाण, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, नयवाद आदि विषयों से संबंधित प्रश्नोत्तर ग्रन्थ के ज्ञान मीमांसीय पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। भगवतीसूत्र के विभिन्न प्रश्रोत्तर आचार-विचार की मूल भावना से भी जुड़े हुए हैं जो श्रमण व श्रावक दोनों की चर्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। आगे चलकर यह चिन्तन श्रावकाचार व श्रमणाचार के रूप में पल्लवित हुआ। धर्म-दर्शन की प्रधानता रखने वाला यह ग्रन्थ सांस्कृतिक दृष्टि से भी उपयोगी व समृद्ध है। इसमें वर्णित धर्म, नीति, भूगोल, इतिहास, विज्ञान, कला आदि विषय यह स्पष्ट करते हैं कि भारतीय संस्कृति का यह चरमोत्कर्ष काल था। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि भगवतीसूत्र जैन आगम साहित्य के इतिहास का ऐसा चमकता नक्षत्र है जिसकी आभा द्रव्य-विज्ञान से आरम्भ होकर आचार आदि को आलोकित करती हुई विज्ञान की ओर अग्रसर हो जाती है। कृतज्ञता-ज्ञापन
जब मैंने 1981 में सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से प्राकृत में एम. ए. किया था तब सोचा नहीं था कि मैं इस क्षेत्र में आगे अनुसंधान कार्य में भी प्रवृत्त होऊँगी। जयपुर आने के लगभग 10 वर्ष पश्चात् अचानक प्रो. कमल चन्द जी सोगाणी से मेरा सम्पर्क हुआ। उनकी प्रेरणा से प्राकृत अध्ययन की ओर मेरी रुचि पुनः जागृत हुई। सोगाणी साहब मुझे निरन्तर आगे अध्ययन के लिए उत्साहित करते रहे। उनकी सतत् प्रेरणा से ही प्राकृत व्याकरण में मेरी गहन रुचि बनी रही। बाद में उन्हीं के सद्प्रयत्नों से प्राकृत भारती के XX
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन