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मतभेद का भी विवेचन किया गया है । आजीविक सम्प्रदाय के इतिहास, अनुयायी, सिद्धान्त, आचार आदि का इस अध्याय में विस्तार से विवेचन प्रस्तुत किया गया है । आजीविक मत के विषय में प्राप्त सामग्री से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सम्प्रदाय भगवान् महावीर के पूर्व में भी विद्यमान था तथा श्रम भगवान् महावीर के काल में गोशालक के अनेक अनुयायी थे ।
अन्य दार्शनिक परंपराओं में क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादी का भी विवेचन किया गया है। इस सम्पूर्ण विवेचन से न केवल भगवान् महावीर के समय में विद्यमान जैन एवं जैनेतर दार्शनिक परंपराओं के आचार-व्यवहार, सिद्धान्तों आदि का ज्ञान होता है अपितु यह तथ्य भी सामने आता है कि भिन्न-भिन्न दार्शनिक परम्पराओं के समर्थकों में धार्मिक कट्टरता का अभाव था। प्रायः अनेक समस्याओं व जिज्ञासाओं पर वे आपस में चर्चा करते और संशयों को दूर करते थे । भगवतीसूत्र में अनेक उदाहरण आये हैं जहाँ अन्य धर्म व सम्प्रदाय के लोगों द्वारा भगवान् महावीर के पास अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त कर श्रमण दीक्षा अंगीकार की गई ।
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन पुस्तक में आगे के अध्यायों में भगवतीसूत्र का धार्मिक मूल्यांकन करते हुए जैन आचारचर्या का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। जैन परंपरा में आचार को ही धर्म माना है। जैन आचार की यह परंपरा दो रूपों में विकसित हुई है, श्रमणाचार व श्रावकाचार । चौदहवें अध्याय में जैन श्रमण परंपरा का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हुए श्रमण के स्वरूप, श्रमण - जीवन की महत्ता, श्रमण दीक्षा के विभिन्न आयाम यथा - वय, वैराग्य के कारण, अनुमति, दीक्षाअभिनिष्क्रमण महोत्सव आदि की विवेचना की गई है। स्कन्द मुनि के जीवन चरित द्वारा श्रमणचर्या का व्यवस्थित क्रम भी प्रस्तुत किया गया है । पन्द्रहवें अध्याय में भगवतीसूत्र के परिप्रेक्ष्य में श्रमणों के आचार एवं तपचर्या का विस्तार से विवेचन प्रस्तुत किया गया है । सामान्य साध्वाचारों में आराधना, पंचविध व्यवहार, त्रिविध जागरिका, समिति, गुप्ति, पाँच महाव्रतों आदि का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। विशेष साध्वाचारों में तप, परीषह, भिक्षु प्रतिमाएँ, गुणरत्नसंवत्सरतप, संलेखना आदि को सम्मिलित किया गया है। तप की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए तप का फल मुक्ति बताया है। प्रारंभ में तप के दो भेद किये हैं, बाह्य तप व आभ्यान्तर तप । पुनः बाह्यतप के अनशन, अवमौदर्य, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश व प्रतिसंलीनता ये
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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