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अनेकान्तवाद को भाषा में प्रतिपादित करने वाली शैली स्याद्वाद् कहलाती है। भगवतीसूत्र में आये अनेक उदाहरण स्याद्वाद के द्योतक हैं। यथा - जीवा सिय सासता, सिय असासता (7.2.35 ) । ऐसे कई और भी उदाहरण इस ग्रन्थ में मिलते हैं जहाँ वस्तु के नाना धर्मों को प्रकट करने के लिए स्याद्वादशैली का प्रयोग किया गया है । भगवतीसूत्र के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि परवर्ती आचार्यों ने सप्तभंगी की जो कल्पना की, उसका मूल रूप भगवतीसूत्र में मौजूद है। प्रारंभ में तो विधि, निषेध, उभय व अवक्तव्य इन चार भंगों की ही प्रस्तुति हुई थी। इसके अनेक उदाहरण ग्रन्थ में आये हैं। इनसे स्पष्ट होता है कि स्याद्वाद के मौलिक भंग प्रारंभ में चार ही थे। इन चार भंगों के अतिरिक्त विभिन्न उदाहरणों द्वारा 6, 7, 13, 19, 22 व 23 भंगों की योजना भी प्रस्तुत की गई है, लेकिन इन सभी के मूल में भंग सात ही हैं शेष भंग एक वचन या बहुवचन के भेद से हैं ।
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अनेकान्तवाद का मूल आधार नयवाद है। परवर्ती दार्शनिक साहित्य में उल्लेखित नैगमादि सात नयों की चर्चा भगवतीसूत्र में नहीं मिलती है, लेकिन उनका प्रारंभिक स्वरूप द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय के रूप में यहाँ सुरक्षित है। पर्यायार्थिक नय के लिए भावार्थिक शब्द का प्रयोग भी हुआ है । बाद के दार्शनिक आचार्य सिद्धसेन ने सन्मतिप्रकरण में इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकारा है कि मूल में तो नय के दो ही भेद हैं- द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक । नयों पर भगवतीसूत्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव; द्रव्यार्थिक व प्रदेशार्थिक, अव्युच्छित्तिनय व व्युच्छित्तिनय, ओघादेश - विधानादेश आदि दृष्टियों से विवेचन हुआ है।
तेरहवें अध्याय में भगवतीसूत्र में उल्लेखित महावीरकालीन जैन एवं प्रमुख जैनेतर दार्शनिक परंपराओं का विवेचन प्रस्तुत किया गया है । भगवतीसूत्र के अध्ययन से पता चलता है कि भगवान् महावीर के समय में अनेक दार्शनिक परंपराएँ प्रचलित थीं । आजीविक, परिव्राजक, तापस, कान्दर्पिक, चरक, आभियोगिक आदि का उल्लेख इस ग्रन्थ में हुआ है । विभिन्न शतकों में पार्श्वापत्यीय स्थवीरों तथा भगवान् महावीर के शिष्यों के बीच हुए वार्तालाप में पार्श्वापत्यीयों द्वारा चातुर्याम धर्म के स्थान पर पंचमहाव्रत रूप धर्म स्वीकार करने का विवेचन भी मिलता है । इस अध्याय में जमालि द्वारा भगवान् महावीर के पास दीक्षा धारण करने, तथा भगवान् महावीर के सिद्धान्तों के साथ उसके
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प्राक्कथन
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