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________________ नास्ति है उसे नास्ति कहते हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में अन्यत्र अस्ति व नास्ति दोनों को ही परिणमनशील स्वीकार करते हुए कहा है- जैसे अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है उसी प्रकार नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है । जो वस्तु स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से 'अस्ति' है वही परद्रव्य क्षेत्र-कालभाव की अपेक्षा से 'नास्ति' है । जिस रूप से वह 'अस्ति' है, उसी रूप से 'नास्ति' नहीं किन्तु, 'अस्ति' ही है और जिस रूप से वह 'नास्ति' है उस रूप से 'अस्ति' नहीं, किन्तु 'नास्ति' ही है । किन्तु, वस्तु को सर्वथा 'अस्ति' माना नहीं जा सकता है। 1 इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र में अस्ति नास्ति, नित्यानित्य, भेदाभेद, एकानेक, सान्त - अनन्त आदि इन विरोधी धर्म - युगलों को अनेकान्तवाद के आश्रय से एक ही वस्तु में घटाया गया है । इसी का आश्रय लेकर बाद के दार्शनिकों ने तार्किक ढंग से दर्शनान्तरों के खण्डनपूर्वक इन्हीं वादों का समर्थन किया है। भगवतीसूत्र में द्रव्य और पर्याय के तथा जीव और शरीर के भेदाभेद का अनेकान्तवाद है, तो दार्शनिक विकास के युग में सामान्य और विशेष, द्रव्य और गुण, द्रव्य और कर्म, द्रव्य और जाति इत्यादि अनेक विषयों में भेदाभेद की चर्चा और समर्थन हुआ है। यद्यपि भेदाभेद का क्षेत्र विकसित और विस्तृत प्रतीत होता है, तथापि सब का मूल द्रव्य और पर्याय के भेदाभेद में ही है, इस बात को भूलना नहीं चाहिए । इसी प्रकार नित्यानित्य, एकानेक, अस्ति - नास्ति, सान्त - अनन्त इन धर्म - युगलों का भी समन्वय क्षेत्र भी कितना ही विस्तृत व विकसित क्यों न हुआ हो, फिर भी उक्त धर्म - युगलों को लेकर भगवतीसूत्र में जो चर्चा हुई है, वही मूलाधार है और उसी के आधार से सारे अनेकान्तवाद का महावृक्ष प्रतिष्ठित है, इसे निश्चयपूर्वक स्वीकार करना चाहिए । स्याद्वाद अनेकान्तवाद में एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्मों को समान भाव से स्वीकार किया गया है । परन्तु दो विरोधी धर्मों को एक ही वस्तु में स्वीकार करना किसी अपेक्षा विशेष से ही हो सकता है - इस भाव को सूचित करने के लिए वाक्यों में 'स्यात्' शब्द के प्रयोग की प्रथा हुई है। इसी कारण अनेकान्तवाद स्याद्वाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस दृष्टि से अनेकान्तवाद सिद्धान्त है और स्याद्वाद उसे प्रस्तुत करने की शैली है। 182 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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