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विभिन्न क्षेत्रों में अनेकान्त का प्रयोग
भगवतीसूत्र में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहाँ भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टि का आश्रय लेकर जगत की व्यवस्था से संबंधित अनेक प्रश्नों का समाधान किया है। कुछ प्रश्नों से संबंधित विवेचन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। लोक की नित्यानित्यता 15
भगवतीसूत्र में स्कन्दक परिव्राजक व जमालि के प्रकरण में लोक की नित्यता व अनित्यता के प्रश्न को सुलझाते हुए उसे नित्यानित्य कहा है । यह लोक शाश्वत भी है और शाश्वत भी है । तीनों कालों में ऐसा कोई समय नहीं जब यह लोक वर्तमान न रहा हो। लोक था, है और रहेगा । अतः यह लोक ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय और नित्य है । दूसरी दृष्टि से यह लोक अशाश्वत भी है क्योंकि अवसर्पिणी काल होकर उत्सर्पिणी काल होता है, फिर उत्सर्पिणी काल होकर अवसर्पिणी काल होता है। इस प्रकार अस्तित्व की दृष्टि से लोक की नित्यता को प्रतिपादित करते हुए उसे ध्रुव व शाश्वतरूप माना है, वहीं काल भेद के कारण लोक में दृष्टिगोचर होने वाली विविधताओं के कारण उसे अशाश्वत रूप में माना है।
लोक की सान्तता और अनन्तता 16
भगवतीसूत्र में लोक चार प्रकार का बताया है- द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक व भावलोक । द्रव्य की अपेक्षा से लोक एक है, और अन्तवाला है, क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्य कोड़ाकोड़ी योजन तक लम्बा-चौड़ा है, असंख्य कोड़ाकोड़ी योजन की परिधि वाला है तथा अन्त सहित है; काल की अपेक्षा से तीनों कालों में वर्तमान है, ऐसा कोई काल नहीं जब लोक न रहा हो अतः ध्रुव, नियत व नित्य है; भाव की अपेक्षा से अनन्त पर्यायों से युक्त होने के कारण अन्त रहित है । यहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव इन चार दृष्टियों को अपनाते हुए लोक की सान्तता और अनन्तता के प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया गया है। जीव की नित्यता व अनित्यता
जीव की नित्यता व अनित्यता के प्रश्न का समाधान भी प्रस्तुत ग्रंथ में अनेकान्तशैली में किया गया है- 'जीवा सिय सासया सिय असासया (7.2.36) अर्थात् जीव शाश्वत भी हैं और अशाश्वत भी हैं । द्रव्य दृष्टि से जीव शाश्वत हैं, किन्तु भाव दृष्टि से जीव अशाश्वत हैं। भावदृष्टि से तात्पर्य पर्याय दृष्टि से है। सभी जीवों में जीवत्व का अस्तित्व हमेशा रहता है । अतः यहाँ अपेक्षा भेद से द्रव्य की दृष्टि से जीव को शाश्वत माना है, किन्तु जीव की पर्यायें सदा ही बदलती
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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