SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहलुओं से देखना, जाँचना अथवा उस तरह देखने की वृत्ति रखकर वैसा प्रयत्न करना ही अनेकान्त दृष्टि है। एकान्त वस्तुगतधर्म नहीं है, किन्तु बुद्धिगत कल्पना है। जब बुद्धि शुद्ध होती है तो एकान्त का नामोनिशान नहीं रहता। दार्शनिकों की भी समस्त दृष्टियाँ अनेकान्त दृष्टि में उसी प्रकार विलीन हो जाती हैं जैसे विभिन्न दिशाओं से आने वाली सरिताएँ सागर में एकाकार हो जाती हैं। आचार्य अमृतचन्द ने अपनी समयसार की आत्मख्याति टीका1 में लिखा है कि जो वस्तु सत् स्वरूप है वही असत् स्वरूप भी है, जो वस्तु एक है वही अनेक भी है, जो वस्तु नित्य है वह अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन करना ही अनेकान्त है। विभज्यवाद सूत्रकृतांगसूत्र में भिक्षु कैसी भाषा का प्रयोग करें, इसके उत्तर में कहा गया है कि 'विभज्यवाद' का प्रयोग करना चाहिए। विभज्यवाद का मतलब ठीक समझने में हमें जैन टीका ग्रंथों के साथ-साथ बौद्ध ग्रंथों से भी मदद मिलती है। बौद्ध मज्झिमनिकाय (सुत्त-99) में शुभ माणवक जब भगवान् बुद्ध से प्रश्न करते हैं- 'मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रवर्जित आराधक नहीं होता है। इसमें आपकी क्या सम्मति है?' इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् बुद्ध अपने को एकांशवादी न बताकर विभज्यवादी बताते हुए कहते हैं- 'यदि गृहस्थ भी मिथ्यात्वी है, तो निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं है और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है तो निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं है। किन्तु, यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपत्ति सम्पन्न हैं, तभी आराधक होते हैं।' इस प्रकार बुद्ध ने इस प्रश्न का उत्तर एकांशी हाँ या नहीं में न देकर, त्यागी या गृहस्थ की आराधकता और अनाराधकता में जो अपेक्षा या कारण था उसे बताकर दोनों को आराधक और अनाराधक बताया है। अर्थात् प्रश्न का उत्तर विभाग करके दिया है इसी कारण अपने को वे विभज्यवादी कहते हैं। जैन टीकाकार विभज्यवाद का अर्थ स्याद्वाद अर्थात अनेकान्तवाद करते हैं। ऐसी स्थिति में सूत्रकृतांगगत विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्तवाद, नयवाद, अपेक्षावाद या पृथक्करण करके, विभाजन करके किसी तत्त्व के विवेचन करने वाले वाद से लिया जा सकता है। भगवान बुद्ध के विभज्यवाद की तरह भगवान् महावीर का विभज्यवाद भी भगवतीसूत्र के प्रश्नोत्तर से स्पष्ट हो जाता है। निम्न प्रश्नोत्तर की सहायता से हम भगवान् बुद्ध व भगवान् महावीर के विभज्यवाद की तुलना सरलता से कर सकते हैं। 176 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy