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दार्शनिक क्षेत्र में तत्त्व के स्वरूप के विषय में जो नये-नये प्रश्न उठते रहते थे, उन प्रश्नों का स्पष्टीकरण भगवान् महावीर ने अन्य दार्शनिकों के विचारों का समन्वय करते हुए किया, यही उनकी दार्शनिक क्षेत्र को महान् देन थी । यही कारण है कि ईसा के बाद होने वाले जैन- दार्शनिकों ने जैन तत्त्व विचारों को अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिपादित किया व महावीर को इस वाद का उपदेशक बताया । भगवान् महावीर की अनेकान्त दृष्टि के उदाहरण प्रायः आगम ग्रंथों में मिलते हैं । किन्तु, भगवतीसूत्र इन सभी में अग्रणी है । भगवतीसूत्र में तीर्थंकर महावीर को अनेकांत का प्ररूपक स्वीकार किया है। इसके स्पष्टीकरण के लिए ग्रंथ में वर्णित भगवान् महावीर के निम्न स्वप्न की व्याख्या प्रस्तुत है 1 चित्र-विचित्र- पंखवाले पुंस्कोकिल का स्वप्न
भगवतीसूत्र' में उन दस महास्वप्नों का विवेचन हुआ है जिन्हें भगवान् महावीर ने छद्मस्थ अवस्था की अन्तिम रात्रि में देखे थे । उनमें से तीसरा स्वप्र इस प्रकार था- एगं च णं महं चित्त-विचित्तं पक्खगं पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे - ( 16.6.20) अर्थात् एक बड़े चित्र-विचित्र पांख वाले पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए । इस महास्वप्न का फल बताते हुए ग्रंथ में कहा गया है कि 'जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्त जाव पडिबुद्धे तं णं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमय-परसमइयं दुवालसंगं गणिपिडगं आघवेति पन्नवेति परूवेति दंसेति निदंसेति उवदंसेति, तं जहा आयारं सूयगडं जाव दिट्ठिवायं - (16.6.21) अर्थात् भगवान् महावीर एक विचित्र स्व - पर सिद्धान्त को बताने वाले आचारांग, सूत्रकृतांग आदि द्वादश गणिपिटकों को प्ररूपित करेंगे।
उक्त स्वप्न में उल्लेखित चित्रविचित्र शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है । इस शब्द की विद्वानों ने अच्छी व्याख्या प्रस्तुत की है। मालवणियाजी' ने अपनी पुस्तक में लिखा है - 'पुंस्कोकिल की पांख को चित्र - विचित्र कहने का और आगमों को विचित्र विशेषण देने का खास तात्पर्य तो यही मालूम होता है कि उनका उपदेश अनेकरंगी - अनेकान्तवाद माना गया है । विशेषण से सूत्रकार ने यही ध्वनित किया है, ऐसा निश्चय करना तो कठिन है, किन्तु यदि भगवान् के दर्शन की विशेषता और प्रस्तुत चित्र-विचित्र विशेषण का कुछ मेल बिठाया जाय, तब यही संभावना की जा सकती है कि यह विशेषण साभिप्राय है और उससे सूत्रकार ने भगवान् के उपदेश की विशेषता अर्थात् अनेकान्तवाद को ध्वनित किया हो तो आश्चर्य की बात नहीं ।'
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन