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अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं नयवाद
अनेकान्तवाद
अनेकान्तवाद जैन दर्शन की अपनी मौलिक देन है । यद्यपि भगवान् महावीर के पूर्ववर्ती वैदिक साहित्य' में और उसके समकालीन बौद्ध साहित्य' में अनेकान्तदृष्टिगर्भित विचार बिखरे हुए मिल जाते हैं । तथापि जैन दर्शन ने इस सिद्धान्त का व्यवस्थित ढंग से निरूपण किया है । इस संबंध में विद्वानों ने आधुनिक ग्रंथ भी लिखे हैं ।
अनेकान्त का अर्थ
अनेकान्त शब्द जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जो किसी भी पदार्थ को उसके समग्र स्वरूप के साथ प्रस्तुत करता है । दूसरे शब्दों में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से वस्तु का दर्शन करना ही 'सत्य - दर्शन' का वास्तविक मार्ग है और वही अनेकान्त है। शाब्दिक दृष्टि से अनेकान्त शब्द ' अनेक' व 'अंत' इन दो शब्दों के मेल से बना है । अनेक का अर्थ है- एक से अधिक या नाना । अन्त का अर्थ है- धर्म। इस दृष्टि से अनेकान्त का अर्थ हुआ वस्तु में नाना धर्मों का होना । किन्तु, यह शाब्दिक अर्थ अनेकान्त के पूर्ण स्वरूप को व्यक्त नहीं करता है । जैन दर्शन के अनुसार किसी वस्तु में अनेक धर्मों का होना अनेकान्तवाद नहीं है, क्योंकि ऐसा तो प्रायः सभी दर्शन स्वीकार करते हैं । किन्तु, प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में रहता है, इसी सत्य को प्रतिपादित करना जैन अनेकान्तवाद का लक्ष्य है।
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जैन तत्त्व व्यवस्था के क्षेत्र में भगवान् महावीर का महत्त्वपूर्ण योगदान अनेकांतवाद की प्ररूपणा के रूप में जाना जा सकता है। इस संबंध में मालवणिया जी लिखते हैं- आगम ग्रंथों का अध्ययन करने के पश्चात् तो यही सिद्ध होता है कि लोक-व्यवस्था, जीव- अजीव के भेदोपभेद, परमाणु - विवेचन, तप, चार प्रकार के ध्यान, गुणस्थान आदि के विषय में तो भगवान् महावीर ने कोई नया मार्ग नहीं दिखाया। ये सब तो पार्श्व की परंपरा में भी विद्यमान थे । लेकिन तत्कालीन
अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं नयवाद
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