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में वह शक्ति अभिव्यक्त नहीं होती है। उत्तराध्ययन में काल का लक्षण वर्तना माना है - वत्तणा लक्खणो कालो - (28.10)। आचार्य उमास्वाति7 ने काल के लक्षण वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व व अपरत्व माने हैं। द्रव्यसंग्रह68 में आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने काल को स्पष्ट करते हुए कहा है कि यद्यपि काल कायरूप नहीं है तथापि रत्नराशी की तरह आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है। श्वेताम्बर परंपरा में काल मनुष्य-क्षेत्रमान में ज्योतिष चक्र के गति क्षेत्र में ही वर्तमान है। वह मनुष्य क्षेत्र प्रमाण होकर के भी सम्पूर्ण लोक के परिवर्तनों का निमित्त बनता है। वह अपना कार्य ज्योतिषचक्र की गति की सहायता से करता है।
भगवतीसूत्र में अद्धाकाल का स्वरूप बताते हुए अतीतकाल, अनागतकाल व समस्तकाल को वर्ण, रस, गंध व स्पर्श रहित बताया है। एक समय की व्याख्या काल परमाणु के रूप में करते हुए कहा गया है कि काल परमाणु चार-प्रकार का हैअवर्ण, अगंध, अरस व अस्पर्श। एक समय को काल परमाणु कहते हैं अतः एक समय में उसके लिए वर्णादि की विवक्षा नहीं होती है। काल के सबसे छोटे रूप को 'समय' कहा है अर्थात् जिसका दो भागों में छेदन-भेदन न हो सके वह समय है। लक्षण __ वर्तना- प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक पर्याय में प्रति समय जो स्वसत्ता की अनुभूति करता है, उसे वर्तना कहते हैं।
परिणाम- द्रव्य में अपनी स्वद्रव्यत्व जाति को नहीं छोड़ते हुए जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है, उसे परिणाम कहते हैं अपनी मौलिक सत्ता को न छोड़ते हुए पूर्वपर्याय का विनाश व उत्तरपर्याय का उत्पन्न होना ही परिणमन है।
क्रिया- बाह्य व आभ्यंतर निमित्तों से द्रव्य में होने वाला परिस्पंदात्मक परिणमन क्रिया है। क्रिया दो प्रकार की होती है- प्रायोगिक और स्वाभाविक। बैलगाड़ी का चलना प्रायोगिक क्रिया है तथा बादल का गरजना, वर्षा होना स्वाभाविक क्रिया है। ___परत्व-अपरत्व- परत्व व अपरत्व क्षेत्रकृत भी हैं और गुणकृत भी हैं। क्षेत्र की दृष्टि से परत्व का तात्पर्य दूरवर्ती एवं अपर का समीपवर्ती है। काल की दृष्टि से सौ साल का वृद्ध 'पर' तथा सोलह साल का युवक 'अपर' है। काल के प्रकार
भगवतीसूत्र में काल के चार प्रकार बताये गये हैं; 1. प्रमाणकाल, 2. यथायुर्निर्वृत्तिकाल, 3. मरणकाल, 4. अद्धाकाल
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन