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परमाणु के स्वरूप की जितनी विस्तार से चर्चा भगवतीसूत्र में की गई है वह अन्य आगम ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होती है। परमाणु को एक वर्ण, एक गंध, एक रस व दो स्पर्शों से युक्त माना है। बाद में आचार्य कुंदकुंद ने भी पंचास्तिकाय में परमाणु के इसी स्वरूप को स्पष्ट किया है। भगवतीसूत्र में परमाणु को अभेद्य, अछेद्य, अनार्द्र, अदाह्य व अविभाज्य कहा है। परमाणु को आकार रहित बताते हुए उसे अनर्द्ध, अमध्य व अप्रदेशी कहा है। द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की दृष्टि से परमाणु के चार प्रकार बताये हैं- द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु व भाव परमाणु। परमाणु में गति की तीव्रता की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि एक परमाणु एक समय में लोक के एक चरमान्त से दूसरे चरमान्त तक चला जाता है। परमाणु निर्माण की प्रक्रिया, परमाणु बंध, पुद्गल-परमाणु का संयोग-वियोग आदि को भी इस अध्याय में प्रस्तुत किया गया है।
दसवें अध्याय का प्रतिपाद्य अरूपी-अजीवद्रव्य है। अरूपी-अजीवद्रव्य में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय व अद्धासमय (काल) को सम्मिलित किया गया है। भगवतीसूत्र में धर्मास्तिकाय को अरूपी, अजीव, शाश्वत तथा लोक अवस्थित एवं गति में सहायक द्रव्य माना है। पुद्गल द्रव्य की तरह धर्मास्तिकाय के प्रदेश, देश या परमाणु आदि भाग नहीं होते हैं, अखण्ड रूप से पूरे धर्मास्तिकाय को ही धर्मास्तिकाय माना है। धर्मास्तिकाय से जीवों के आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, काययोग, वचनयोग आदि भाव प्रवृत्त होते हैं। धर्मास्तिकाय की तरह ही अधर्मास्तिकाय का स्वरूप भी वर्णित है। अधर्मास्तिकाय को स्थिति में सहायक बताया गया है। आचार्य सिद्धसेन आदि कुछ दार्शनिक धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय को स्वतंत्र द्रव्य न मानकर उन्हें द्रव्य की पर्याय मात्र मानते हैं। किन्तु, भगवतीसूत्र में विवेचित धर्म-अधर्म द्रव्य के स्वरूप से यह प्रमाणित हो जाता है कि धर्म-अधर्म द्रव्य जीव व पुद्गल की गति व स्थिति में सहायक हैं। उनके अभाव में जीव व पदगल अनन्त आकाश में गति करने लगेंगे तथा सम्पूर्ण लोक व्यवस्था ही ध्वस्त हो जायेगी।
भगवतीसूत्र में आकाशास्तिकाय को लोक-अलोक प्रमाण अनन्त द्रव्य रूप माना है। व्यवस्था की दृष्टि से आकाश के दो भेद किये हैं लोकाकाश व अलोकाकाश। जहाँ जीवादि द्रव्य रहते हैं वह लोकाकाश तथा उससे परे
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन