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होकर रहे हैं । जीव व पुद्गल के इस सम्बन्ध को इस अध्याय में जीव व शरीर, जीव व मन तथा जीव व इन्द्रिय आदि पहलुओं के रूप में विवेचित करते हुए यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है कि भगवतीसूत्र जीव व पुद्गल के सम्बन्धों को लेकर न सर्वथा भेदवाद का समर्थन करता है, न सर्वथा अभेदवाद का, अपितु भेदाभेदवाद को स्वीकार करता है।
इस अध्याय में जीवों के भेद - प्रभेद पर भी विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला गया है । भगवतीसूत्र में चैतन्य की दृष्टि से जहाँ सभी जीवों में एकत्व की प्ररूपणा करते हुए जीव का एक भेद किया है वहीं अन्य दृष्टियों से जीव के दो, छ:, चौदह आदि भेद भी किये हैं। पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों के स्वरूप पर इस अध्याय में विशेष प्रकाश डाला गया है । पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीवों में श्वास, आहार, कर्म, क्रिया, वेदना आदि की प्ररूपणा वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । आचारांग के प्रथम अध्ययन में भी स्थावर जीवों पर सूक्ष्म चिन्तन हुआ है । इस दृष्टि से भगवतीसूत्र आचारांग का पूरक ग्रन्थ है। त्रस जीवों में द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों तथा उनके भेदों का विवेचन किया गया है।
अजीव-द्रव्य के दो भेद किये गये हैं- रूपी - अजीव द्रव्य अर्थात् पुद्गल एवं अरूपी - अजीव द्रव्य अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं अद्धासमय । नवें अध्याय में रूपी - अजीव द्रव्य के विवेचन में पुद्गल द्रव्य एवं परमाणु के स्वरूप पर विस्तार से चर्चा प्रस्तुत की गई है। पुद्गल द्रव्य को पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, आठ स्पर्शों से युक्त होने के कारण रूपी द्रव्य कहा है। पुद्गल द्रव्य को द्रव्यदृष्टि से अनन्त द्रव्य, क्षेत्र की दृष्टि से लोक प्रमाण, काल की दृष्टि से त्रिकालवर्ती होने के कारण नित्य, भाव की दृष्टि से रूप, रस, गंध व स्पर्श से युक्त तथा गुण की दृष्टि से ग्रहण गुण वाला बताया है। पुद्गल की चर्चा में उसके आकार-प्रकार, स्थिति, पुद्गल परिणामों के प्रकार, पुद्गल की शाश्वतता - अशाश्वतता आदि का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। पुद्गल के चार प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैंस्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश व परमाणु - पुद्गल । आचार्य कुंदकुंद ने प्रवचनसार में पुद्गल द्रव्य के इन चारों भेदों की चर्चा की है किन्तु, नियमसार में उन्होंने स्कन्ध के छः भेदों की चर्चा भी की है- 1. अतिस्थूल, 2. स्थूल, 3. स्थूलसूक्ष्म, 4. सूक्ष्मस्थूल, 5. सूक्ष्म, 6. अतिसूक्ष्म । यह चर्चा भगवतीसूत्र में नहीं मिलती है
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प्राक्कथन
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