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________________ के स्वरूप को प्रतिपादित किया गया है। उसे वर्ण, गंध, रस व स्पर्श से रहित होने के कारण अरूपी तथा लोक में अवस्थित होने से लोक प्रमाण कहा है। जीव द्रव्य का प्रमुख लक्षण ग्रन्थ में चैतन्य माना है। चैतन्य व जीव में तादात्म्य स्थापित करते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है कि जीवे ताव नियमा जीव, जीवे वि नियमा जीवे - (6.10.2) अर्थात् जो जीव है वह निश्चित रूप से चैतन्य स्वरूप है तथा जो चैतन्य है वह भी निश्चित रूप से जीव है। स्थानांग, प्रवचनसार, द्रव्यसंग्रह आदि ग्रन्थों में भी चेतना को जीव का प्रमुख लक्षण माना है। जीव में कर्तृत्व व भोक्तृत्व भाव को विभिन्न उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है कि जीव अपने किये हुए कर्मों का कर्ता है तथा उसका फल भोगे बिना इस संसार से मुक्त नहीं हो सकता है। जीव के परिमाण को लेकर प्रायः अन्य सभी दर्शनों ने अपनी-अपनी मान्यताएँ प्रस्तुत की हैं। सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि दर्शन अमूर्त होने के कारण आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं, वहीं कुछ वेदान्तवादी उसे अणु रूप मानते हैं। अन्य जैन ग्रन्थों की तरह भगवतीसूत्र में आत्मा को न सर्वव्यापक माना है न अणु परिमाण अपितु उसे स्वदेह परिमाण कहा है। शरीर के आकार के अनुसार ही जीव का संकोचन व विस्तार होता रहता है तथा जीव के प्रदेश शरीर के हर अंश में व्याप्त रहते हैं। जीव के स्वरूप को द्रव्य व पर्याय दोनों ही दृष्टियों से प्रतिपादित किया गया है। द्रव्य की दृष्टि से जीव शाश्वत व पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत है। द्रव्य व क्षेत्र की दृष्टि से जीव अन्त सहित तथा काल व भाव की दृष्टि से अन्त रहित है। जीव अभेद्य, अछेद्य व अदाह्य है। जीव के प्रदेशों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि लोकाकाश की तरह एक जीव के भी असंख्यात प्रदेश होते हैं तथा सम्पूर्ण जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेश हैं। जीव द्रव्य को अनन्त मानते हुए कहा गया है कि नैरयिक, वायुकायिक आदि असंख्यात हैं, वनस्पतिकायिक सिद्ध आदि अनन्त हैं अतः जीव द्रव्य अनन्त हैं। चैतन्य सभी प्राणियों में सर्वदा एक सा नहीं रहता है उसका रूपान्तरण होता रहता है। इस दृष्टि से भगवतीसूत्र में आत्मा के आठ भेद किये गये हैंद्रव्य-आत्मा, कषाय-आत्मा, योग-आत्मा, उपयोग-आत्मा, ज्ञान-आत्मा, दर्शनआत्मा, चारित्र-आत्मा, वीर्य-आत्मा। जीव व पुद्गल के सम्बन्ध को प्रतिपादित करते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है कि जीव व पुद्गल परस्पर स्पृष्ट हैं, परस्पर गाढ़रूप से मिले हुए हैं, परस्पर स्निग्धता में प्रतिबद्ध हैं, परस्पर गाढ़ भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन XII
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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