SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थिति, लोक का परिमाण, लोक की विशालता, लोक की लम्बाई का मध्य भाग, लोक- अलोक का क्रम, अवकाशान्तर, लोकान्त व अलोकान्त का स्पर्श आदि का भी विवेचन किया गया है। इस सम्पूर्ण विवेचन से यह ज्ञात होता है कि लोक के स्वरूप की विवेचना में लोक को पाँच अस्तिकायों का समूह ही माना है। अस्तिकाय रूप न होने के कारण काल द्रव्य को लोक की संरचना में स्थान नहीं दिया गया है । दूसरी बात लोक व अलोक के क्रम में सातवीं पृथ्वी को ही लोक का अन्त न मानते हुए उसके नीचे घनोदधि, घनवात, तनुवात व अवकाशान्तर माने हैं । भगवतीसूत्र में जहाँ एक ओर लोक का स्वरूप बताते हुए उसे पंचास्तिकाय रूप माना है वहीं दूसरी ओर सर्व द्रव्यों की संख्या छः मानी है- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय एवं अद्धासमय (काल)। सातवें अध्याय में विभिन्न जैन ग्रन्थों के आधार पर द्रव्य की परिभाषा व उसके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप पर प्रकाश डाला है । द्रव्य व पर्याय के सम्बन्ध को विभिन्न उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करते हुए भगवतीसूत्र के आधार पर यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है कि द्रव्य स्थिर है उसकी पर्यायें बदलती रहती हैं परन्तु बदलती रहने वाली पर्यायों के साथ द्रव्य नहीं बदलता है, वह सदा शाश्वत रहता है । यद्यपि जैन ग्रन्थों में द्रव्यों की संख्या छः मानी गई है तथापि भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से उन छः द्रव्यों का विभाजन किया गया है। प्रवचनसार, तत्त्वार्थराजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में उल्लेखित विभाजन का उल्लेख करते हुए भगवतीसूत्र में प्रतिपादित द्रव्य के विभाजन को इस अध्याय में विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रस्तुत किया गया है। भगवतीसूत्र में द्रव्य के दो प्रमुख भेद जीव तथा अजीव किये हैं । अजीव द्रव्य के रूपी - अजीवद्रव्य तथा अरूपी - अजीवद्रव्य ये दो भेद किये हैं । पुन: अरूपीअजीवद्रव्य के भिन्न-भिन्न दृष्टियों से 5, 7, 10 भेद किये गये हैं । किन्तु, इनमें मुख्य भेद धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय व अद्धासमय ही हैं, शेष भेद देश व प्रदेश की दृष्टि से किये गये हैं । अन्य जैन ग्रन्थों में भी मुख्य रूप से द्रव्य छः ही माने गये हैं अतः आगे के अध्यायों में इसी क्रम में छः द्रव्यों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। आठवें अध्याय में जीव- द्रव्य का प्रतिपादन है । इस अध्याय में अन्य जैनागमों में वर्णित जीव का स्वरूप बताते हुए भगवतीसूत्र के अनुसार जीव XI प्राक्कथन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy