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अनन्त अलोकाकाश है जहाँ न जीव है न जीव के देश, न अजीव के प्रदेश। वह एक अजीव द्रव्य देश है। अवगाहना को आकाश का प्रमुख गुण माना है। आकाशास्तिकाय की विवेचना में ऐन्द्रि (पूर्व), आग्नेयी (अग्निकोण) आदि दस दिशाओं के स्वरूप का भी विवेचन किया गया है।
इस अध्याय का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष काल द्रव्य को स्वतंत्र द्रव्य के रूप में मान्यता प्रदान करना है। काल द्रव्य का अस्तित्व है यह तो सभी जैन परंपराएँ स्वीकार करती हैं, किन्तु काल द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता को लेकर जैन परंपरा में दो मान्यताएँ प्रचलित हैं। एक परंपरा काल द्रव्य को स्वतंत्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करती है जबकि दूसरी परंपरा उसे जीव-अजीव की पर्याय के रूप में मान्यता प्रदान करती है। भगवतीसूत्र में सर्वद्रव्यों की विवेचना में काल द्रव्य को छ: द्रव्यों में स्वतंत्र स्थान प्रदान किया गया है। विभिन्न आगम ग्रन्थों, परवर्ती आगम साहित्य तथा आधुनिक विद्वानों के दृष्टिकोणों का समीक्षात्मक अध्ययन करने के पश्चात् इस अध्याय में यही निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है कि काल द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता है। काल द्रव्य के कारण ही जीव-अजीव की पर्याय में परिवर्तन होता है अत: उसे जीव-अजीव की पर्याय भी कहा गया है।
ग्यारहवें अध्याय में भगवतीसत्र में विवेचित ज्ञान-मीमांसा तथा प्रमाण का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। भगवतीसूत्र में ज्ञान को निश्चय रूप से आत्मरूप ही माना है- णांणे पुण नियमं आया - (12.10.10) प्रवचनसार में भी आचार्य कुंदकुंद ने निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान व आत्मा में अभेद स्वीकार किया है। भगवतीसूत्र में ज्ञान को साकारोपयोग व दर्शन को निराकारोपयोग माना है। ज्ञानवाद के विकास की परंपरा की चर्चा में आगमों में तीन भूमिकाओं का उल्लेख मिलता है। प्रथम भूमिका भगवतीसूत्र में प्राप्त होती है जहाँ ज्ञान के पाँच भेद किये गये हैं- 1. आभिनिबोधिक, 2. श्रुत, 3. अवधि, 4. मन:पर्यव, 5. केवलज्ञान। द्वितीय भूमिका स्थानांग में प्राप्त होती है जहाँ ज्ञान को प्रत्यक्ष व परोक्ष दो भेदों में विभक्त कर पांचों ज्ञानों में से मति व श्रुत को परोक्ष के अन्तर्गत रखा गया तथा अवधि, मनःपर्यव व केवलज्ञान को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत रखा है। ज्ञान विभाजन की तृतीय भूमिका नन्दीसूत्र में प्राप्त होती है जहाँ इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों में स्थान दिया गया है। भगवतीसूत्र में ज्ञान विभाजन में ज्ञान के आभिनिबोधिक आदि पाँच भेद करते
प्राक्कथन
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