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________________ अरूपी-अजीवद्रव्य (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं काल) धर्मास्तिकाय भगवतीसूत्र में धर्मास्तिकाय की गणना अरूपी अजीव द्रव्य के पाँच, सात तथा दस भेदों के अन्तर्गत की गई है। (व्या. सू. 2.10.11, 10.1.8, 25.2.1-2) धर्मास्तिकाय या धर्म-द्रव्य में जुड़ा धर्म शब्द किसी नैतिक अर्थ का सूचक नहीं है। जैसा कि प्रायः कहा जाता है कि आत्मशुद्धि साधनं धर्मः अर्थात् आत्मा की शुद्धि का साधन धर्म है। न ही धर्म शब्द यहां वस्तु के स्वभाव या गुण को सूचित कर रहा है। जैन द्रव्य-मीमांसा में धर्मास्तिकाय का विशेष अर्थ है। भगवतीसूत्र में गति में सहायक द्रव्य को धर्म-द्रव्य कहा गया है- गतिलक्खणे णं धम्मत्थिकाए (13.4.24)। उत्तराध्ययन में भी गई लक्ख णो उ धम्मो - (28.9) कहकर धर्मास्तिकाय का लक्षण गति स्वीकार किया गया है। आगे चलकर तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने भी धर्म-द्रव्य को गति के उपकारक के रूप में स्वीकार किया है- गतिस्थित्युपग्रहो धर्मोधर्मयोरुपकारः - (5.17) आचार्य तुलसी ने अपनी पुस्तक जैन सिद्धान्त दीपिका में धर्मद्रव्य को गति के असाधारण माध्यम के रूप में विवेचित किया है- गत्यसाधारणसहायो धर्मः - (1.4) गति को लक्षण के रूप में स्वीकार करने वाली धर्म द्रव्य की यह मौलिक परिभाषा केवल जैन-ग्रंथों में ही उपलब्ध है। भगवतीसूत्र में धर्मास्तिकाय का स्वरूप बताते हुए कहा गया है- अवण्णे अगंधे अरसे अफासे अरूवी अजीवे सासते अवट्टिते लोगदव्वे - (2.10.2) अर्थात् धर्मास्तिकाय वर्णरहित, गंधरहित, रसरहित व स्पर्शरहित है अर्थात् अरूपी है, अजीव है; शाश्वत है तथा अवस्थित लोक प्रमाण द्रव्य है। धर्मास्तिकाय अमूर्त द्रव्य है। धर्मास्तिकाय पर कोई व्यक्ति न बैठ सकता है, न सो सकता है, न उठ सकता है, न करवट बदल सकता है। गति धर्मास्तिकाय का लक्षण है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व गुण की अपेक्षा से भगवतीसूत्र में धर्मास्तिकाय के पाँच प्रकारों की चर्चा की गई है। द्रव्य की दृष्टि से धर्मास्तिकाय को एक द्रव्य अरूपी-अजीवद्रव्य 133
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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