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________________ रूप, क्षेत्र की अपेक्षा से लोक प्रमाण, काल की अपेक्षा से तीनों कालों भूत, भविष्य व वर्तमान में उसका अस्तित्व होने के कारण नित्य तथा भाव की अपेक्षा से वर्ण, गंध, रस व स्पर्श से रहित होने के कारण अरूपी बताया गया है। गुण की अपेक्षा से उसे गति गुण वाला कहा है अर्थात् धर्मास्तिकाय गतिपरिणत जीवों व पुदगलों के गमन में सहायक है। आचार्य कुंदकुंद ने भी पंचास्तिकाय में धर्मास्तिकाय के इसी स्वरूप का समर्थन किया है- धर्मास्तिकाय नामक द्रव्य पाँच प्रकार के रसों से रहित है, पाँच प्रकार के वर्णों, दो प्रकार की गंध से रहित है, शब्दरूप नहीं है, आठ प्रकार के स्पर्श से रहित है, समस्त लोक में व्याप्त है, अखंड प्रदेश वाला है, स्वभाव से ही सब जगह फैला हुआ है व असंख्यात प्रदेशी है। भगवतीसूत्र एवं अन्य जैनागमों द्वारा दी गई धर्मद्रव्य की परिभाषाओं से धर्मद्रव्य के स्वरूप को अच्छी तरह समझा जा सकता है। वस्तुतः यह धर्म द्रव्य रूप, रस, गंध, स्पर्श व वर्ण से रहित होने के कारण अरूपी कहा गया है। लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं जहां धर्मद्रव्य न हो इसी कारण इसे लोक व्याप्त माना गया है। संक्षेप में धर्मद्रव्य लोक अवस्थित ऐसा अरूपी निष्क्रिय द्रव्य है, जो स्वयं तो गतिमान नहीं है, किन्तु जीव व अजीव की गति में सहायक का कार्य करता है। धर्मद्रव्य गति में किस प्रकार सहायक होता है इसको समझाते हुए द्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा है- जैसे पानी के अभाव में मछली गति नहीं कर सकती, यद्यपि उसमें गति करने की क्षमता विद्यमान है। उसी प्रकार जीव व पुद्गल में गति करने की क्षमता तो विद्यमान है पर धर्म द्रव्य उस गति का सहायक कारण बनता है। जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी भी अन्य भारतीय दर्शन में धर्म द्रव्य को इस रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। यह जैन-दर्शन की अपनी मौलिक देन है। जैन-दर्शन में जिस गति सहायक पदार्थ को धर्म-द्रव्य कहा गया है, उसी से मिलते-जुलते द्रव्य को आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने 'ईथर' कहा है। सर्वप्रथम न्यूटन ने 'ईथर' तत्त्व की व्याख्या कर उसे सम्पूर्ण आकाश व ब्रह्मांड में व्याप्त माना। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने गति तत्त्व की संस्थापना करते हुए कहा है कि लोक परिमित है, लोक से परे अलोक अपरिमित है। लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य या शक्ति लोक से बाहर नहीं जा सकती है। लोक के बाहर उस शक्ति या द्रव्य का अभाव है, जो गति में सहायक होता है। 134 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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