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दोनों ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध होगा। तीन विभाग होने पर एक तरफ पृथक्-पृथक् दो परमाणु व दूसरी तरफ द्विप्रदेशी स्कन्ध । चार विभाग होने पर चारों पुद्गल परमाणु पृथक्-पृथक् होते हैं। इस प्रकार असंख्यात व अनन्त प्रदेशी परमाणु-पुद्गलों के संयोग व वियोग से होने वाले विभागों के विकल्पों का वर्णन किया गया है। प्राणी जगत के लिए पुद्गल का उपकार
जैन दर्शन षड्द्रव्यों को स्वीकार करता है। उन छ: द्रव्यों में पांच द्रव्य अरूपी होने के कारण हमारी इन्द्रियों के विषय नहीं बन सकते हैं। छठा द्रव्य पुद्गल रूपी व मूर्त है अत: वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य है। हमारे इस सम्पूर्ण दृश्यमान जगत की लीलाओं का आधार यह मूर्त पुद्गल द्रव्य ही है।
पुद्गलास्तिकाय का लक्षण ग्रहण रूप है। अतः इसकी उपयोगिता को बताते हुए भगवतीसूत्र' में कहा है- पुद्गलास्तिकाय से ही जीवों के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वास-उच्छ्वास को ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है।
भगवतीसूत्र के इस विवेचन से स्पष्ट है कि यह समस्त संसार ही नहीं वरन् इस संसार में होने वाली जीव की समस्त क्रियायें भी पौद्गलिक ही हैं । जीव का शरीर धारण करना, इन्द्रियाँ व उनकी प्रवृत्तियाँ सभी पुद्गल के निमित्त से हैं। जीव का श्वास लेना, निकालना सब पुद्गल के ही परिणमन हैं। जो भाषा या वचन हम बोलते हैं वे भी पुद्गल की ही पर्याय हैं। भगवतीसूत्र में कहा है- भाषा आत्मा नहीं अन्य (पुद्गल) है। भाषा जीव नहीं अजीव है। भाषा अरूपी नहीं रूपी है। व्यक्ति का शारीरिक ही नहीं मानसिक चिन्तन भी पुद्गल सहायापेक्ष है। चिन्तक चिन्तन से पूर्व क्षण में मनोवर्गणा के स्कन्धों को ग्रहण करता है उसकी चिन्तन के अनुकूल अनुकृतियाँ बन जाती हैं।
इस समूचे पौद्गलिक संसार में जीव की समस्त वैभाविक अवस्थाएँ पुद्गल-निमित्तक होती हैं। तात्पर्य दृष्टि से देखा जाय तो यह जगत जीव और पुद्गल के विभिन्न संयोगों का प्रतिबिम्ब मात्र है। जीव अपनी समस्त क्रियाएँ पुद्गल के सहयोग से ही करता है। पुद्गलास्तिकाय रूपी है जिस पर कोई भी सोने, उठने-बैठने, करवट लेने आदि क्रियाएँ करने में समर्थ होता है। संसारी आत्मा पुद्गल के बिना नहीं रह सकती है। जब तक जीव इस संसार में भ्रमण करता रहेगा उसका पुद्गल के साथ संबंध अविच्छेद है। इस संबंध में तत्त्वार्थसूत्र
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन