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कर्मबंध, क्रिया, वेदना, लेश्यादि- पृथ्वीकायिकादि स्थावर जीवों के कर्मबंध का विवेचन करते हुए कहा है कि इनके आठ कर्म-प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। ये सात या आठ कर्म प्रकृतियाँ बांधते हैं तथा 14 कर्म प्रकृतियाँ (8 मूल व 6 उत्तरकर्मप्रकृतियाँ) वेदते हैं। सभी पृथ्वीकायिक जीव मायी व मिथ्यादृष्टि हैं, इसलिए उन्हें आरम्भिकी आदि पाँचों क्रियायें लगती हैं। पृथ्वीकायिकादि स्थावर जीवों में वेदना का निरूपण करते हुए कहा है कि सभी पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी हैं अतः समान वेदना वाले होते हैं। उन जीवों में ऐसा तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन नहीं होता कि हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कर रहे हैं, किन्तु वे उसका वेदन अवश्य करते हैं। वे शारीरिक वेदना वेदते हैं, मानसिक नहीं 8 वेदना का प्रमुख कारण 'करण' को बताते हुए कहा है कि इनके करण शुभाशुभ होने से ये करण द्वारा विमात्रा में विविध प्रकार से वेदना वेदते हैं। अर्थात् शुभकरण होने से सातावेदना वेदते हैं, अशुभकरण होने से असाता वेदना वेदते हैं।
आचारांगसूत्र100 के प्रथम अध्ययन में स्थावर जीवों पर सूक्ष्म चिंतन किया गया है। स्थावर जीवों में वेदना की अनुभूति को स्पष्ट करते हुए कहा है-जिस प्रकार का वेदना बोध जन्म से अंधे, बधिर, मूक, पंगु और मनुष्य को होता है, उसी प्रकार का व्यक्त वेदनाबोध पृथ्वीकाय के जीवों को भी होता है। वनस्पति को आचारांग में चेतना युक्त बताते हुए कहा गया है कि छिन्न होने पर मनुष्य और वनस्पति दोनों म्लान होते हैं। मनुष्य व वनस्पति दोनों आहार करते हैं। आधुनिक युग में जगदीशचन्द्र वसु ने अपने शोध यंत्र द्वारा सिद्ध कर दिया कि वनस्पति सजीव होती है। उसमें भोजन, वर्धन, श्वास, प्रजनन, विसर्जन, मरण, अनुकूलन आदि समस्त गुण विद्यमान होते हैं। 'जैन आगमों में वनस्पति विज्ञान' नामक अपनी पुस्तक में कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने प्रयोगों द्वारा स्पष्ट किया है कि श्वास की प्रक्रिया वनस्पति में पत्तों द्वारा सम्पन्न होती है। त्रस जीव
दो इन्द्रियों से लेकर पाँच इन्द्रियों तक के जीवों का समावेश त्रस जीवों के अन्तर्गत किया गया है। त्रस जीवों की जैन ग्रन्थों में कर्म व क्रिया संबंधी दो परिभाषाएँ मिलती हैं। 1. जो चल फिर सके, वे त्रस जीव कहलाते हैं। 2. कर्म की दृष्टि से जिनके त्रस नाम कर्म का उदय हो वे त्रस जीव कहलाते हैं। ये ही जीव प्रधानत्रस होते हैं। त्रस जीवों में गति, भाषा, इच्छा आदि चैतन्य के लक्षण स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं। इनके चार प्रमुख भेद किये गये हैं।101
जीव द्रव्य
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