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1. द्वीन्द्रिय, 2. त्रीन्द्रिय, 3. चतुरिन्द्रिय, 4. पंचेन्द्रिय
भगवतीसूत्र102 में 15वें शतक में गोशालक के विभिन्न भवों के प्रसंग में त्रस जीवों के भेद-प्रभेद पर प्रकाश डाला गया है।
द्वीन्द्रिय जीव- जिन जीवों के रसना व स्पर्शन ये दो इन्द्रियाँ होती हैं, वे द्वीन्द्रिय जीव कहलाते हैं। जैसे- कृमि, पुलाकृमि, कुक्षिकृमि, गण्डोयलक, शंख, शंखनक, सिप्पिसंपुट, समुद्रलिक्षा आदि।
त्रीन्द्रिय जीव- जिन जीवों में रसना, स्पर्शन, घ्राण रूप तीन इन्द्रियाँ होती हैं। वे त्रीन्द्रिय जीव कहलाते हैं। यथा- कुंथु, ओपयिक, रोहिणीक, झींगर, गोम्ही, हस्तिशोण्ड आदि।
चतरिन्द्रिय जीव- जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण व चक्षु रूप चार इन्द्रियाँ होती हैं, वे चतुरिन्द्रिय जीव कहलाते हैं। जैसे- अंधिक पौत्रिक, मक्खीमच्छर, कीट, पतंग, कुक्कुड़, दोला, भ्रमर, गोमयकीट आदि।
द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव विकलेन्द्रिय भी कहे जाते हैं। ग्रंथ में इनकी स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार आदि के संबंध में विवेचन प्राप्त होता है। इनकी स्थिति का विवेचन करते हुए कहा गया है कि इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है, व उत्कृष्ट द्वीन्द्रिय की बारह वर्ष की, त्रीन्द्रिय की 49 अहोरात्र की एवं चतुरिन्द्रिय की छ: माह की है। इनका श्वासोच्छ्वास विमात्रा वाला (अनियत) बताया है। द्वीन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का होता है, रोमाहार एवं प्रक्षेपाहार। जिन पुद्गलों को वे रोम द्वारा ग्रहण करते हैं, उन सबका सम्पूर्ण रूप से आहार करते हैं तथा जिन पुद्गलों को प्रेक्षपाहाररूप से ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों में से असंख्यातवाँ भाग आहार रूप में ग्रहण होता है, शेष बिना आस्वादन किये नष्ट हो जाता है। द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुदगल उनके विविधतापूर्वक जिह्वेन्द्रिय रूप में और स्पर्शेन्द्रिय रूप में बार-बार परिणत होते हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों द्वारा किया गया आहार, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के रूप में बार-बार परिणत होता है।103 इसके अतिरिक्त ग्रंथ में द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों के कर्म, क्रिया, लेश्या, वेदना आदि के सम्बन्ध में भी विवेचन हआ है।
पंचेन्द्रिय जीव- जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र रूप पाँच इन्द्रियाँ होती हैं, वे पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में नारक, मनुष्य तिर्यंच-पंचेन्द्रिय व देव चारों ही समाहित हो जाते हैं- पंचेन्दिया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा। णेरइय; तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा -
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन