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क्षायिक भाव- कर्मों के क्षय से होने वाली आत्मा की अवस्था, क्षायिक भाव है।
क्षायोपशमिक भाव- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन घाति कर्मों के हल्केपन से आत्मा की जो अवस्था होती है, वह क्षायोपशमिक भाव है। इस अवस्था में प्रतिपल, प्रतिक्षण कर्म का उदय, वेदन व क्षय होता रहता
है।
पारिणामिक भाव- कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना स्वभावतः जीव में जो परिणतियाँ होती हैं, वह पारिणामिक भाव है।
सान्निपातिक भाव- औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पाँचों भावों में से दो, तीन, चार या पाँच भावों के मिलने से जो भाव निष्पन्न होते हैं, वे सब सान्निपातिक भाव हैं। जीव अथवा आत्मा के आठ प्रकार
आत्मा चैतनस्वरूप है तथा उपयोग को उसका लक्षण माना गया है। लेकिन यह चैतन्य सभी प्राणियों में सर्वदा एक सा नहीं रहता है। उसमें रूपान्तरण होता रहता है। इसी रूपान्तरण को पर्याय परिवर्तन कहा जाता है। आत्मा एक द्रव्य है, किन्तु उसमें पर्याय परिवर्तन प्रतिक्षण होते रहते हैं। इस प्रकार पर्याय परिवर्तन की दृष्टि से आत्मा के अनन्त भेद हो सकते हैं। भगवतीसूत्र में मुख्यरूप से आत्मा के आठ भेद किये हैं। ____ 1. द्रव्य-आत्मा, 2. कषाय-आत्मा, 3. योग-आत्मा, 4. उपयोग-आत्मा, 5. ज्ञान-आत्मा, 6. दर्शन-आत्मा, 7. चारित्र-आत्मा, 8. वीर्य-आत्मा
द्रव्य-आत्मा- द्रव्यात्मा चेतनामय असंख्य, अविभाज्य प्रदेशों-अवयवों का अखंड समूह है। इसमें केवल विशुद्ध आत्म-द्रव्य को ही स्वीकार किया गया है। पर्यायों को गौण मान लिया गया है। यह शुद्ध चेतना रूप है।
कषाय-आत्मा- क्रोध, मान, माया व लोभ से रंजित हुआ आत्मा कषायात्मा होता है।
योग-आत्मा- आत्मा की सभी प्रवृत्तियाँ योग के माध्यम से की जाती हैं, अतः आत्मा का एक भेद योग-आत्मा भी माना गया है।
उपयोग-आत्मा- ज्ञान दर्शन रूप, उपयोग प्रधान आत्मा उपयोग-आत्मा कहलाती है।
ज्ञान-आत्मा- ज्ञानात्मक चेतना को ज्ञान-आत्मा कहते हैं। यह सम्यग् दृष्टि जीवों में पाई जाती है।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन