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________________ दर्शन-आत्मा- दर्शनात्मक चेतना को दर्शन-आत्मा कहा जाता है। चारित्र-आत्मा- आत्मा की विशिष्ट संयममूलक अवस्था चारित्र-आत्मा के नाम से विश्रुत है। वीर्य-आत्मा- आत्मा की शक्ति वीर्य-आत्मा के नाम से जानी जाती है। आत्मा के उक्त आठ प्रकार अपेक्षा भेद से किये गये हैं। अनंत पर्यायों की दृष्टि से आत्मा के अनंत भेद हो सकते हैं। कौन सी आत्मा के साथ कौन सी आत्मा पाई जाती है, इसका ग्रंथ में विस्तार से विवेचन हुआ है। जीव व पुद्गल का संबंध लोक व्यवस्था के संचालन हेतु भगवतीसूत्र में मुख्य रूप से दो तत्त्वजीव और अजीव स्वीकार किये हैं। ग्रंथ में अजीव के पुनः रूपी व अरूपी दो विभाग करने पर एकमात्र पुद्गल को रूपी तत्त्व तथा धर्म, अधर्म, आकाश व काल को अरूपी मानकर तत्त्वों की संख्या छ: मान ली गई है। इन छ: तत्त्वों में से जीव व पुद्गल ये दो तत्त्व ऐसे हैं जो लोक व्यवस्था के संचालन में महत्वपूर्ण हैं। इनके संयोग व वियोग से यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत रूपी रंगमंच चलता है। लेकिन सम्पूर्ण जगत को चलाने वाले ये दोनों तत्त्व स्वभावतः सर्वथा ही भिन्न हैं। जहाँ जीव चैतन्य स्वरूप व अमूर्त है वहीं पुद्गल मूर्त व अचेतन है। दोनों एक साथ रहते व कार्य करते हुए भी कभी भी एक दूसरे के स्वभाव को ग्रहण नहीं करते हैं। जीव कभी अचेतन नहीं बन सकता है न ही पुद्गल कभी चेतन रूप बन सकता है। ऐसी स्थिति में जब हम यह कहते हैं कि जीव व अजीव दोनों के संयोग से ही इस दृश्यमान जगत की सृष्टि होती है तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जीव व अजीव का संबंध कैसे होता है तथा उसका क्या स्वरूप है? भगवतीसत्र में जीव व अजीव के संबंध को स्पष्ट करते हुए कहा गया है है-अस्थि णं भंते! जीवा य पोग्गला य अन्नमनबद्धा अन्नमन्नपुट्टा अन्नमनमोगाढा अन्नमन्नसिहेणपडिबद्धा अन्नमनघडत्ताए चिटुंति? हंता, अत्थि - (1.6.26)। अर्थात् जीव व पुद्गल परस्पर स्पृष्ट हैं, परस्पर गाढ़रूप से मिले हुए हैं, परस्पर स्निग्धता से प्रतिबद्ध हैं, परस्पर गाढ़ होकर रहे हुए हैं। पुनः इसे एक दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए कहा गया कि जैसे कोई तालाब हो, वह जल से पूर्ण हो, पानी से लबालब भरा हो, पानी से छलक रहा हो, पानी से पूर्ण भरे हुए घड़े के समान है। उस तालाब में यदि सौ छिद्रों वाली कोई नौका छोड़ी जाय तो वह नौका भी पानी से लबालब भरे हुए उस घड़े के समान ही हो जायेगी। जीव द्रव्य 97
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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