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________________ विविधता सूचित करने के लिए 'जीवाश्च' बहुवचन का प्रयोग किया गया है। संसारी जीव गति आदि चौदह मार्गणास्थान, मिथ्या दृष्टि आदि चौदह गुणस्थान, सूक्ष्म, बादर आदि चौदह जीव स्थानों के विकल्पों से अनेक प्रकार के हैं। मुक्त जीव भी एक, दो, तीन संख्यात, असंख्यात, समयसिद्ध शरीराकार, अवगाहनादि के भेद से अनेक प्रकार के हैं। जीव की अनन्तता के इसी सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए भगवतीसूत्र61 में कहा गया है कि जीव-द्रव्य संख्यात नहीं असंख्यात नहीं अनन्त हैं । नैरयिक, वायुकायिक आदि असंख्यात हैं और वनस्पतिकायिक अनन्त हैं, द्वीन्द्रिय, वैमानिक आदि असंख्यात हैं, सिद्ध अनन्त हैं। इस कारण यह माना गया है कि जीव द्रव्य अनन्त हैं। द्रव्य की अपेक्षा से भगवतीसूत्र में जीवास्तिकाय को अनन्त जीव द्रव्य रूप माना है। - दव्वतो णं जीवत्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं- (2.10.5)। जीवों की अनन्तता को स्वीकार करने के साथ-साथ भगवतीसूत्र में यह भी माना गया है कि जीव घटते-बढ़ते नहीं हैं। किन्तु, अवस्थित रहते हैं। अवस्थित से तात्पर्य है कि जीवों की उत्पत्ति व मरण समान संख्या में होना। अथवा कुछ काल तक जीव का जन्म-मरण नहीं होना। जीवों की अवस्थिति के विषय में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जीव सर्वद्धा (सब काल में) अवस्थित रहते हैं। जीव के भाव ___ कर्मों के संयोग व वियोग के कारण जीव की जो अवस्था विशेष होती है, वह भाव कहलाती है। जीव अनादि काल से कर्मबंधन युक्त है। जब तक कर्मों का बंधन चलता रहता है, जीव के भाव परिणत होते रहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में जीव के पाँच भाव बताये हैं___1. औपशमिक, 2. क्षायिक, 3. मिश्र (क्षायोपशमिक), 4. औदयिक, 5. पारिणामिक। भगवतीसूत्र में जीव के छः भाव बताये हैं 1.औदयिक, 2. औपशमिक, 3. क्षायिक, 4. क्षायोपशमिक, 5. पारिणामिक, 6. सान्निपातिक औदयिक भाव- कर्मों के उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था औदयिक भाव है। यह आठों कर्मों का होता है। औपशमिक भाव- इस अवस्था में उदय आठ कर्मों का होता है पर उपशम केवल मोहनीय कर्म का होता है। इस अवस्था में मोहनीय कर्म पूर्ण रूप से प्रभावहीन हो जाता है। जीव द्रव्य 95
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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