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जीव द्रव्य
जीव या आत्मा भारतीय दर्शन की आत्मा ही है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है। समस्त दार्शनिक चिन्तन इसी आत्मतत्त्व के इर्द-गिर्द ही घूमता प्रतीत होता है । प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने आत्मा के संबंध में अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये हैं । वेदों में यद्यपि आत्मा के संबंध में स्पष्ट विचार नहीं मिलते हैं, किन्तु आगे चलकर उपनिषदों में उनका विकसित रूप अवश्य ही प्राप्त होता है । उपनिषदों में आत्मा के संबंध में भिन्न-भिन्न मत प्राप्त होते हैं । उपनिषद चिन्तन आत्म-स्वरूप निर्धारण में निरन्तर प्रगति करता प्रतीत होता है । बौद्ध-दर्शन' के संस्थापक भगवान बुद्ध स्पष्ट रूप से आत्मा का निषेध न कर आत्म-संबंधी प्रश्नों को अव्याकृत कहकर मौन हो जाते हैं । सांख्य' आत्मा को नित्य, विभु, चेतन व भोगी मानता है, किन्तु आत्मा को कर्ता नहीं मानता है । न्याय-वैशेषिक आत्मा को नित्य तो मानते हैं, किन्तु चैतन्य को उसके आगन्तुक गुण के रूप में स्वीकार करते हैं । जैन दर्शन में आत्मतत्त्व के विकास पर विशेष चिन्तन किया गया है । जैन दर्शन में आत्मा के लिए प्राय: 'जीव' शब्द का प्रयोग ही हुआ है । जीव के अस्तित्व के प्रमाण
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जिस प्रकार घट, पट आदि पुद्गल द्रव्यों का हमें प्रत्यक्ष दर्शन होता है उसी प्रकार आत्मा के दर्शन हमें नहीं होते हैं, क्योंकि आत्मा अरूपी द्रव्य है, लेकिन आत्मा का अनुभव हमें इसके अभिन्न गुण चेतना के व्यापार द्वारा होता है । इसे समझाते हुए भगवतीसूत्र + में कहा गया है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार - पराक्रम से युक्त जीव आत्मभाव से जीवभाव (चैतन्य) को प्रकट करता है। यहाँ आत्मभाव से तात्पर्य उत्थान, गमन, शयन, भोजन आदि आत्मा के परिणाम से है । इन आत्मभावों से जीव अपने जीवत्व (चैतन्य) का प्रकाशन करता है। आगे इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए महावीर कहते हैं - जीव आभिनिबोधिक आदि पांचों ज्ञान की अनंत पर्यायों, मति आदि तीन अज्ञानों की अनंत पर्यायों, चक्षु आदि चार दर्शनों की अनंत पर्यायों के उपयोग को प्राप्त होता है
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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